लोकगीत वस्तुतः किसी भी समाज के जनमानस का आइना होता है.
सदियों से अनाम- अनजाने कंठों में रचे-बसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी को सहज परंपरागत ढंग से
हस्तांतरित होनेवाले इन गीतों में लोकमानस के हर्ष-उल्लास, आशा-आकांक्षा,
कुंठा-संत्रास आदि मनोभावों की कल्पना युक्त सरस अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
तथाकथित आधुनिकता और दूसरों की नक़ल करने की दौड़ में आज हमने
‘पुरातन’ खो दिया है. किन्तु, वर्तमान परिवेश में जब हम अपनी परंपरागत साहित्य या
संस्कृति की बात करते हैं तो लोक जगत हमें अपनी ओर खींचता है. यदि आदिवासी
लोक-साहित्य की तरफ मुखातिब हों तो यह खिंचाव कुछ ज्यादा ही चुम्बकीय महसूस होता
है.
संताल आदिवासी बिहार और झारखण्ड राज्यों की प्रमुख जनजातियों
में से एक है. संताल परगना प्रमंडल के अतिरिक्त बांका, भागलपुर, मुंगेर, जमुई,
कटिहार, पूर्णिया, गिरिडीह, धनबाद, पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूम जिले में ये बसे हुए
हैं. बिहार, झारखण्ड के अलावे पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, मेघालय, मिजोरम, आदि
राज्यों तथा पड़ोसी देश नेपाल और बांग्लादेश के दिनाजपुर जिले में इसकी आबादी देखी
जा सकती है.
संताल जनजाति का कोई लिखित इतिहास नहीं है परन्तु इनके बीच
प्रचलित रीति-रिवाज़ों, लोक मान्यताओं और साहित्य में परंपरागत ढंग से इनके
ऐतिहासिक तथ्य सुरक्षित हैं.
प्रसिद्ध मंदार पर्वत की महिमा युगों से इनके सामाजिक
आचार-व्यवहार, संस्कृति और लोक गीतों में भरे पड़े हैं. संतालों में प्रचलित
परम्परानुसार जब कोई छोटा अपने से बड़े को प्रणाम करता है तो आशीर्वाद स्वरूप वे
बच्चों को कहते हैं “ मंदार बुरु लेका जीवी हारा कोक ताम मा” जिसका अर्थ है मंदार
की तरह लंबी उम्र जियो और विशाल बनो.
इनके बापला (विवाह) पर्व –त्योहारों विभिन्न संस्कारों एवं
अन्य पारंपरिक गीतों में अधिकतर मंदार पर्वत की महिमा का वर्णन मिलता है. तो आइये
ऐसे कुछ उदाहरणों को देखते हैं –
मंदार बुरू चोट खोन
तोवा नातुक कान जिरी-हिरी .
आम गेचों मरांग दादा जोतो खोनेम
तोवा नातुक कान जेम्बेदोक में ..
अर्थात, मंदार पर्वत के ऊपर से झर-झर बह रहा है दूध का झरना. भैया हम सब में
आप ही सबसे बड़े हैं, दूध पीने के लिए आप ही सबसे पहले मुंह लगाएं.
मंदार बुरु को सेंदायेदा
शिकारिया बेन तायनोम एना
आबेन दो शिकारिया नोंडे बाड़े
ताहेन बेन, माराक लिबाय-लेबोय दाक कीन ञूंया.
अर्थात, मंदार पर्वत पर शिकार करने के लिए सभी शिकारी चले गए हैं पर तुम दोनों
पीछे छूट गए हो. अब तुम दोनों यहीं पर रुक जाओ. झूमते हुए मोर का जोड़ा पानी पीने
के लिए अब यहीं आने वाला है.
मंदार बुरु चोट रे
आड़ी जोतोन तेञ डाडी आकात
ओले सेपे उमातिञ बोडेयापे
गातेञ ए उमातिञ बोडेयापे
गातेञ ए उमातिञ लोलो सितुंग.
अर्थात, मंदार पर्वत के ऊपर बड़े यत्न से मैंने एक चुआं बनाया है. उसमें स्नान
कर उसे कोई गंदा मत करना. उस पानी में मेरी प्रेमिका धूप में स्नान करेगी.
मंदार बुरु चोट रे
कोल बादोली मोयरा कुड़ी
बिन रोड़ लांदा, तेगे लांदा
लेकाय ञेलोक कान
कोल बादोली मोयरा कुड़ी.
अर्थात, मंदार पहाड़ की चोटी पर एक मोयरा युवती कोयल की तरह हंस रही है. वह
मोयरा युवती कोयल की तरह बिना हंसी के ही हंसने की तरह लग रही है. (मोयरा एक जाति
है.)
मंदार बुरु चोट खोन
पिंचार माराक कीन उडावेना
पिंचार माराक दोकीन बांग काना
जुरी कुड़ी याक साड़ी ओरांगोक कान.
अर्थात, देखो! मंदार पर्वत की चोटी से उड़ गया वो सुन्दर पंखवाला मोर का जोड़ा.
वह मोर पंछी का जोड़ा नहीं, लगता है कि दो युवतियां अपनी साड़ियाँ लहरा रही हैं.
मंदार बुरु चोट रे
आड़ी कुचित रे सोनोत बाहा
दारेञ देजोक रेमा डार
जानुम जांगाञ रोगोक कान
अर्थात, मंदार पर्वत की चोटी पर सोनोत के फूल खिले हैं. ये बड़े ही कठिन स्थान
पर हैं. जब फूल तोड़ने जाती हूं तो मेरे पैर में कांटे चुभ जाते हैं. हाय! कैसे तोडूंगी
उस सोनोत के फूल को?
संताल जनजाति का सबसे महान पर्व ‘सोहराय’ (वन्दना) है. इस
अवसर पर गाए जानेवाले सोहराय लोकगीतों में मंदार पर्वत का वर्णन कुछ इस प्रकार
मिलता है –
मंदार बुरु दो दायना
होरा से डाहारा ना दाय
रामे-लखन झाम-झाम कीन
देजोक-फेडोक कान ना दाय.
होर हो दाय होर गेया
डाहार हो दाय डाहार गेया
रामे-लखन झाम-झाम कीन
देजोक-फेडोक कान ना दाय
अर्थात, ओ दीदी! मंदार पर्वत में सड़क या रास्ता है या नहीं? राम-लक्ष्मण झूमते
हुए चढ़ते और उतरते हैं.
बहन! मंदार पर्वत के ऊपर से नीचे उतरने के लिए सड़क बने हुए हैं. उसी सड़क से
राम-लक्ष्मण झूमते हुए आते-जाते हैं.
मंदार बुरु देजोक-फेडोक
दाह्ड़ी मैरी ञूरेन तीञ
सेदाय लेका हित पीरित
बानुक लांगा मैरी
दाहड़ी मैरी ओहोञ हालांग ले.
अर्थात, ओ प्रियतमा! मंदार पर्वत पर चढ़ने-उतरने में मेरी पगड़ी गिर गई है.
थोड़ा, उसे उठा देना तो!
नहीं प्रियतम, नहीं उठाऊंगी. हमदोनों में अब पहले जैसी दोस्ती नहीं रही.
मंदार बुरु देजोक-फेडोक
दाक दो दायना तेतांग किदींञ
दाक दो दायना तोका रेलांग यूंञ.
होड़ लेबेत बोडे दाक दो दाय
बालांग यूंञ दाय.
आलांग-तेतांग डाडिया, ना दाय
रिला-माला-सितिञ दाक लांग यूंञर!
रिला-माला-सितिञ दाक तेलांग यूंञ जियाड़ोक.
बहन, लोगों के आने-जाने से पानी गन्दा हो गया है. उसे नहीं पियेंगे. दोनों
मिलकर मंदार पर्वत पर चुआं बनायेंगे. उससे स्वच्छ निर्मल जल निकलेगा. उसी को हम
दोनों पियेंगे.
सीता नाला दाक दो दाय
फारया वासे वोड़े गेया दाय
सीता कापरा कीन
उम नाड़कान कान ना दाय
सीता नाला दाक दो दायना
रिला माला साफ़ा मेनाक
सीता कापरा कीन
उम नाड़कान कान ना दाय.
अर्थात, दीदी बताओ! सीता कुंड का पानी साफ़ है या गंदा? उस जल में सीता और
कापरा स्नान कर रही है.
बहन! सीता कुंड का जल बिलकुल ही स्वच्छ और निर्मल है इसलिए सीता और कापरा
स्नान कर रही है.
(संताल जनश्रुति में सीता और कापरा बहन थीं.)
गातेञ तिरयोय ओरोंग मंदार बुरु रे
इञ दोंञ नातेन बाड़ाय दाक लो घाट रे
कान्डांग बागियाक रेमा होड़को ञेलेञ कान
बाञ सेनोक रेमा गातेञ ए रूहादीञ
होड़ रोड़ दोरेञ सहाव गेया रे
गातेञ नेगेर दो तोहोञ सहावले.
अर्थात, मंदार पर्वत पर मेरे प्रियतम बांसुरी बजा रहे
हैं. मैं पनघट से सुन रही हूँ. यदि मैं पनघट पर घड़ा छोड़ के जाती हूं तो लोग क्या
कहेंगे? ये तुम्हारे लिए भी बड़ी लज्जा की बात होगी.
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