भगवान मधुसूदन तो विष्णु
का ही एक रूप हैं. कहते हैं कि मधु नामक दैत्य का वध करने के बाद विष्णुजी मधुसूदन
कहलाए. किंवदंती है कि मधु का वध करने के बाद उन्होंने उसके सिर पर मंदराचल को
रखकर अपने पैर से इस पर्वत को दबाए रखा. इसी कारण से मंदार पर्वत के सबसे ऊपर वाले
मंदिर में पहले भगवान मधुसूदन का ही मंदिर बनाया गया था जिसे अब जैनियों ने यहाँ
के ज़मींदारों से पट्टे पर लेकर अब एकाधिकार जमा लिया है. 
सन १५७३ के बाद जब मंदार
पर काला पहाड़ का आक्रमण हुआ तब से भगवान मधुसूदन को बौंसी में स्थापित कर दिया गया
और पर्वत के शिखर के मंदिरों में इनके चरण चिह्नों की पूजा की जाने लगी. कालांतर
में जैनियों ने मंदिर पर आधिपत्य जमाने के बाद सभी पौराणिक-ऐतिहासिक अवशेष हटा
दिए. यहाँ तक कि मंदिर की संरचना में भी छेड़छाड़ किया. 
भगवान मधुसूदन के बौंसी में स्थापित किए जाने के बाद कुछ परम्पराएं डाली गईं जिनमें उनका मकर संक्रांति के अवसर पर मंदार की तलहटी में अवस्थित फगडोल पर जाना भी तय हुआ और रथयात्रा के अवसर पर नई बालिसा नगरी अर्थात बौंसी बाज़ार तक आना भी. इन दोनों परम्पराओं को निभाने के लिए तब के राजाओं-ज़मींदारों की ओर से हाथी और रथ का प्रबंध किए जाने की परंपरा थी.
पहले, लकड़ी और लोहे के हाल
चढ़े पहियों से बने दो मंजिला रथ को तैयार किया गया था. इसमें बगडुम्बा ड्योढ़ी का
काफी योगदान था. कहते हैं, हाल के कुछ वर्षों पहले तक हाथी से भगवान की सवारी मकर
संक्रांति को मंदार तक जाती थी जिसकी व्यवस्था बगडुम्बा ड्योढ़ी के श्री अशोक सिंह
करते थे. हाथी की अनुपलब्धता और बौंसी मेले के प्रशासनिक कब्जे के कारण इन्होंने
अपना हाथ पीछे खींच लिया. 
रथयात्रा के समय भगवान की
सवारी रथ को श्रद्धालु-जन खींचते हुए बौंसी बाज़ार तक लाते थे और फिर वापस ले जाते
थे. इस वक़्त काफी भीड़ रहती थी. आस-पड़ोस की आबादी इस परम्परा को देखने बौंसी में
जमा होती थी. इस मौके पर बारिश जरुर होती और लोग इस पवित्र बारिश की हल्की फुहार
में भींगकर खुद को धन्य समझते थे. कहते हैं कि भगवान जगन्नाथ ही मधुसूदन हैं, तो
परम्पराएं तो वही रहेंगीं. 
इस रथ की भी एक अपनी कहानी
है. 
सन १९९6 की रथयात्रा के
दौरान बौंसी बाज़ार जाने के क्रम में रेलवे क्रॉसिंग के नजदीक रथ के कुछ पहिये टूट
गए. रथ को बाज़ार तक ले जाना मुश्किल था. किसी तरह से इसे खींचकर-जुगाड़ लगाकर मंदिर
तक वापस लाया गया. श्री फ़तेह बहादुर सिंह ‘पन्ना दा’ एवं अन्य धर्मप्राण लोगों की
सहायता से इस रथ की मरम्मती के बदले एक नया रथ बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली.
निर्णय यह भी लिया गया कि नया रथ लकड़ी का नहीं बल्कि लोहे का होगा. नए प्रस्ताव को
मंजूरी व धन की व्यवस्था में काफी वक़्त निकल गया. सन १९९7 में अगली रथयात्रा के
मात्र ३४ दिन शेष थे और भगवान के लिए अबतक कोई व्यवस्था नहीं हो पायी थी. ऐन मौके
पर पंजवारा के प्रेमशंकर शर्मा को नए रथ के निर्माण का महती कार्य सौंपा गया.
जरुरत की सभी चीज़ें रांची से खरीदकर लाई गयीं और अपने ३ कारीगरों के साथ एड़ी चोटी
एक करके श्री शर्मा ने रथयात्रा के दिन सुबह तक इस रथ को पूरा कर दिया. इसमें १२
पहिये थे और इसे भी दो मंजिला तैयार किया गया था. सन २०१५ में रथयात्रा से पूर्व
इसमें ४ पहिये और जोड़ दिए जाने से यह १६ पहियों का हो गया है. अन्य ४ पहिये जोड़े
जाने के पीछे यह तर्क था कि १२ पहिये मधुसूदन के रथ में जोड़ा जाना अशुभ है. इस रथ
का एक-एक पहिया लगभग एक क्विंटल का है. रथ के आर्किटेक्चर की ज़िम्मेदारी भी श्री
शर्मा ने बखूबी निभाई.
 समय सदा बदलाव चाहता है.
और, भगवान के रथ में भी बदलाव के लिए सोचा गया. इसी क्रम में पंडाटोला के श्री पटल
झा की सक्रियता से भगवान की सवारी के लिए गरुड़-सदृश एक रथ बनाने का निर्णय लिया
गया. इसके लिए पुरानी जीप की एक चेसिस खरीदी गई. अर्थाभाव के कारण यह चेसिस कई
वर्षों तक प्रेमशंकर शर्मा के वर्कशॉप में पड़ी रही. इसपर एक दिन एक स्थानीय युवक
राजीव ठाकुर की निगाह पड़ी और इस काम को पूरा कराने का जिम्मा उन्होंने उठा लिया.
इसके लिए इन्होंने समाज के कुछ सक्रिय बुद्धिजीवियों व वरिष्ठ लोगों के साथ बैठकें
कर इसे साकार देने की एक रूपरेखा तय की गयी. रथ के तकनीकी पहलुओं पर प्रेमशंकर
शर्मा व अन्य से चर्चा के बाद भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के रूप को बनाने के लिए
भागलपुर के श्री गुड्डू मिस्त्री का चयन किया गया. श्री गुड्डू ने शीशम की लकड़ी को
तराशकर बखूबी गरुड़ का रूप दिया. इसमें इस्पात के कुछ स्प्रिंग के प्रयोग किए गए
जिससे गरुड़ के पंख हिलते-डुलते से प्रतीत हों. जब यह संरचना पॉलिश की गई तो इसका
स्वरुप और निखर गया. इसी वक़्त पुरानी जीप की उस चेसिस पर एक और नया रथ प्रेमशंकर
शर्मा द्वारा तैयार किया जा रहा था. दो मंजिल का यह रथ भी तैयार किये जाने के बाद
ढाँचे में तय स्थान पर गरुड़ को स्थापित कर दिया गया. इस रथ को ३० दिनों में तीन
मजदूरों की सहायता से तैयार किया गया. इस रथ को ट्रैक्टर की सहायता से संचालित
किया जा सकता है.
समय सदा बदलाव चाहता है.
और, भगवान के रथ में भी बदलाव के लिए सोचा गया. इसी क्रम में पंडाटोला के श्री पटल
झा की सक्रियता से भगवान की सवारी के लिए गरुड़-सदृश एक रथ बनाने का निर्णय लिया
गया. इसके लिए पुरानी जीप की एक चेसिस खरीदी गई. अर्थाभाव के कारण यह चेसिस कई
वर्षों तक प्रेमशंकर शर्मा के वर्कशॉप में पड़ी रही. इसपर एक दिन एक स्थानीय युवक
राजीव ठाकुर की निगाह पड़ी और इस काम को पूरा कराने का जिम्मा उन्होंने उठा लिया.
इसके लिए इन्होंने समाज के कुछ सक्रिय बुद्धिजीवियों व वरिष्ठ लोगों के साथ बैठकें
कर इसे साकार देने की एक रूपरेखा तय की गयी. रथ के तकनीकी पहलुओं पर प्रेमशंकर
शर्मा व अन्य से चर्चा के बाद भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के रूप को बनाने के लिए
भागलपुर के श्री गुड्डू मिस्त्री का चयन किया गया. श्री गुड्डू ने शीशम की लकड़ी को
तराशकर बखूबी गरुड़ का रूप दिया. इसमें इस्पात के कुछ स्प्रिंग के प्रयोग किए गए
जिससे गरुड़ के पंख हिलते-डुलते से प्रतीत हों. जब यह संरचना पॉलिश की गई तो इसका
स्वरुप और निखर गया. इसी वक़्त पुरानी जीप की उस चेसिस पर एक और नया रथ प्रेमशंकर
शर्मा द्वारा तैयार किया जा रहा था. दो मंजिल का यह रथ भी तैयार किये जाने के बाद
ढाँचे में तय स्थान पर गरुड़ को स्थापित कर दिया गया. इस रथ को ३० दिनों में तीन
मजदूरों की सहायता से तैयार किया गया. इस रथ को ट्रैक्टर की सहायता से संचालित
किया जा सकता है.    
तैयार होने के बाद इस रथ
की छटा देखते ही बनती है. २०१६ की रथयात्रा के वक़्त भगवान मधुसूदन की सवारी इसी से
निकली. अब ठाकुर मधुसूदनजी इसी रथ से हरवर्ष मंदार तक जायेंगे जिसे लोगों द्वारा
खींचने की जरुरत नहीं पड़ेंगी. 
भगवान के इन दोनों रथों को रखने के लिए अलग-अलग घर
हैं. इन रथों को इन घरों से सिर्फ भगवान की यात्रा के वक़्त या फिर किसी प्रकार की
तकनीकी दिक्कत या आवश्यक बदलाव के लिए वर्कशॉप तक ले जाने के लिए ही निकाला जाता
है. बौंसी मेला के अवसर पर आम लोगों के दर्शनार्थ इसे रथ-घर के बाहर रखे जाने की
योजना है.
 


 
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