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Sunday, August 5, 2018

आदिकाल से परित्यक्त रहा है ‘अंग महाजनपद’


-         उदय शंकर झा ‘चंचल’

महाभारत कालीन अंग महाजनपद को हज़ारों वर्षों से परित्यक्त रखने की साज़िश से इंकार नहीं किया जा सकता है। विदित हो कि अब वृहत विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण और पद्म पुराण में जिस मंदार पर्वत की महिमा का गुणगान किया गया, उसे धर्मग्रन्थ छापनेवालों ने मंदार क्षेत्र की महिमा का विस्तार से गुणगान किए जानेवाले भाग को ही काटकर इन पुराणों का ‘संक्षिप्त संस्करण’ निकाल दिया। आश्चर्य कि बात है कि अब आप इन मुख्य पुराणों को खरीदने बाज़ार में जाएँ तो आपको ‘संक्षिप्त विष्णु पुराण’, ‘संक्षिप्त स्कंद पुराण’, ‘संक्षिप्त पद्म पुराण’ ही मिलेंगे। इसे भी अपनी जानकारी में जोड़ लिया जाए कि ऐसा सभी प्रकाशनों के साथ है न कि किसी ख़ास के साथ।
अंग क्षेत्र के सर्वाधिक चर्चित मंदार पर्वत के साथ ‘समुद्र मंथन’ की गाथा जुड़ी है। पद्म पुराण के पाताल खंड (अध्याय-109, श्लोक – २१ से 60)  में यह चर्चा है कि आदिकाल में इस पर्वत के नीचे ‘मंदारपुरी’ नामक एक विशाल नगर था जो नगरद्वारों, गोपुरमों और प्रतिमाओं से सुसज्जित था। यह नगर ८८ तालाबों से घिरा हुआ था। यहाँ ५२ गलियों वाले ५३ बाज़ार थे। इस नगर के बीचोंबीच शिव-परिवार की बड़ी-सी मूर्ति थी। इस नगर का वर्णन कहीं-कहीं ‘बालिशा नगर’ के नाम से भी मिलता है तो कहीं ‘अपर मंदार’ के नाम से।
मंदार के नीचे उन ८८ प्राचीन तालाबों में से अधिकतम का अस्तित्व आज भी है। इन तालाबों के बीच खड़े पत्थर के खूबसूरत लाट इसकी प्राचीनता के बारे में खुद ही बताते हैं। इसका अवलोकन आप मंदार पर्वत के शीर्ष से कर सकते हैं।  
इतिहासकार फ्रांसिस बुकानन, मोंटगोमरी मार्टिन, विलियम फ्रेंकलिन, जॉन फेथफुल फ्लीट,  जेडी बेगलर, हंटर, जोसेफ बायर्ने, राधाकृष्ण चौधरी, एएस आल्टेकर, डॉ. अभय कान्त चौधरी, ‘बिहार दर्पण’ के लेखक गदाधर प्रसाद अम्बष्ठ ने मंदार के नीचे विशाल नगर के प्रमाण देखे थे। इन सबों ने यहाँ शिल्पकृत पत्थरों की श्रृंखलाओं को लंबी दूरी तक बिखरा हुआ देखा। आज भी यहाँ शिल्पकृत ये पत्थर काफी दूरी तक फैले हुए हैं। जन-जागृति के अभाव में इसका एक बड़ा हिस्सा उठाकर लोग ले गए। मूर्तियाँ तस्करों के हाथों बेच दी गयीं। बावजूद इसके, यहाँ अभी भी महत्वपूर्ण चीज़ें ज़मीन में दफ्न हैं जो यदाकदा मिलती रहती हैं।
यह चिर-प्रतीक्षित और अति महत्वपूर्ण सवाल है कि इतने महत्त्व के नगर को आख़िर किसने क्षति पहुंचाई? और... इससे भी बड़ा सवाल कि इतनी बड़ी क्षति पहुंचाने के बाद इसे महत्वपूर्ण धर्मग्रंथों से हटाने का प्रपंच आख़िर किसने रचा होगा?
इतिहासज्ञों की मानें तो विभिन्न पुराण विभिन्न कालों में रचे गए और इसी तरह अन्य धार्मिक पुस्तकें भी। उपरोक्त तीनों पुराणों के बारे में कहा जाता है कि ये ईसा के बाद तीसरी शताब्दी के आसपास रचे गए। फिर कालिदास के काल में और इसके बाद 9वीं सदी में ‘योगिनी पुराण’ वगैरह में मंदार की चर्चा है। आख़िर इस बीच के ६०० सालों में इसकी क्या और कहाँ चर्चा हुई, यह गौण है।
पाल वंश के काल में इस क्षेत्र में 9वीं सदी में विशाल महाविहार ‘विक्रमशिला’ की स्थापना की गई। तब यह क्षेत्र भी बौद्धों का केंद्र रहा। इससे पहले भगवन बुद्ध द्वारा दीक्षित सबसे अधिक उम्र के शिष्य और कौल-विद्या के महारथी सुपिंदोला भारद्वाज का निवास यहीं था, जिनको सम्राट अशोक ने अपने शासन क्षेत्र में धर्म प्रचार के लिए बुलाया था।
इसके अलावा, अंग महाजनपद की दक्षिणी ओर के दो विख्यात मंदिरों बैद्यनाथ और बासुकीनाथ को भी ज्योतिर्लिंगों में शामिल नहीं किया जाना उपेक्षा ही तो है। मुद्दे को गौर कीजिए तो आपको स्पष्ट महसूस होगा कि शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों के वर्णन में “परल्यां वैद्यनाथं ...” कहकर बैद्यनाथ देवघर (झारखंड) को काटकर परली (महाराष्ट्र) को स्थापित कर दिया गया!
इतना ही नहीं, ‘बौधायन धर्मसूत्र’ में इस इलाके में जाने तक को भी निषेध करार दिया गया। कहा गया है कि यहाँ जाने पर पुनः संस्कार कराना पड़ता है। यह   

“अंग बंग कलिंगेषु सौराष्ट्र मगधेषु च ।
तीर्थ यात्रां बिना गच्छन् पुनः संस्कारमर्हति ॥“
                                                (बौधायन धर्मसूत्र, 1 : 1 : 2)

लोकगीतों में भी इस क्षेत्र की भर्त्सना कम नहीं की गई है। अँगरेज़ विद्वान जी. ए. ग्रिएर्सन ने एक भोजपुरी गीत की कुछ लाइनों को उद्धृत किया है –
“भागलपुर के भगेलिया, कहलगाँव के ठग
पटना के दिवालिया, तीनों नामज़द ।“

यह पर्यावरणीय सत्य है कि जिस उर्वर भूमि में लोगों का आना-जाना नहीं होता है वहां झाड़ियां उग आती है। पेड़ उभर आते हैं। जैसा कि परित्यक्त घरों या हवेलियों के साथ भी होता है। ऐसा ही इस क्षेत्र में भी हुआ। लोगों द्वारा परित्यक्त होने के कारण यह क्षेत्र पेड़-पौधों से भर गया और एक विशाल जंगल बन गया। तब इस जंगल में वे ही लोग आते-जाते रहे जिन्हें जंगल में शिकार करने की चाहत रही। औरंगज़ेब का भाई शाह शुज़ा जब बंगाल का गवर्नर था तब इस इलाक़े में वो शिकार करने आता था। इस बात के गवाह जगह-जगह पर उसके रहने के लिए बने मकान थे जिसके अपभ्रंश अब भी मौजूद हैं। बांका जिले के रजौन (स्टेट हाइवे -19) और अमरपुर में भी ‘शुज़ा शिकारगाह’ के अवशेष होने की जानकारी है। इसी तरह गोड्डा, राजमहल जैसे क्षेत्रों में भी इसके शिकारगाह मिले हैं।
          इसी तरह खड़गपुर (मुंगेर) रियासत के बनने की कहानी भी -राजपूत राजा संग्राम सिंह के आखेट पर आने और मनोरम जगह देखकर अपनी खड्ग (तलवार) ज़मीन पर डाल देने के कारण यह जगह ‘खडगपुर’ कहलाया- ज्ञात है।       
मुगलों और अंग्रेजों के आते-आते यह उपेक्षित क्षेत्र विशाल जंगल से भर गया जिसे ‘जंगलतरी’ इलाक़ा कहा जाने लगा। इसका नाम चंपा-मालिनी से बदलकर ‘भागलपुर’ रख दिया गया जो सिर्फ ‘नीचा दिखाने’ के लिए किया गया होगा। इसका अर्थ ही है ‘भगोड़ों का गाँव’। सनद रहे, यह नाम किसी ‘भगदंतपुर’ का अपभ्रंश नहीं है। ...फिर तो क्लीवलैंड के ज़माने में संतालों को छोटा नागपुर से लाकर यहाँ बसाकर ज़मीनों के पट्टे दिए गए। उन्होंने ये जंगल काटे और खेती की सूत्रपात हुई।
          इतनी लंबी बात कहने का हमारा मतलब सिर्फ इतिहास बांचना नहीं था, बल्कि हमें चेतना होगा। अब भी सरकारें किसी को हों; भारत के अन्य प्रसिद्ध स्थानों की तरह इसका विकास नहीं हुआ। हम अब भी परित्यक्त ही हैं। आपसी मतभेद भुलाकर हमें एकजुट रहना होगा। याद रहे, हम उनकी लफ्फाज़ियों में फंसकर जाति और संप्रदाय में बंटकर लंबे समय से उपेक्षा का शिकार रहे हैं। इतिहास ने भी हमें उपेक्षित ही किया।  
जय अंग ! जय अंगिका !!