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Wednesday, November 15, 2017

विश्व का अनोखा एकलौता मंदिरजहाँ दीपावली के अवसर पर जलाये जाते थे लाखों दीये एक साथ

     समुद्र मंथन की कहानी से जुड़े मंदार या मंदराचल पर्वत की पूर्वी तलहटी के जंगलों के बीच छुपे लखदीपा मंदिर के भग्न अवशेष अब भी पड़े हैं जहाँ दीपावली के अवसर पर लाखों दीये जलाने की परंपरा थी। यहाँ एक घर से एक ही दीया जलाने का नियम था। कहते हैं कि इस जगह पर पहले बालिशा नगर हुआ करता था जहाँ रहनेवाले लोग लखदीपा मंदिर में इन दीयों को जलाते थे। यह पर्वत बिहार के बांका जिले में है, जहाँ  तक पहुँचने के लिए भागलपुर-दुमका मुख्यमार्ग या रेलमार्ग की सहायता लेनी होती है।
      इस प्राचीन बालिसा नगर की लखदीपा में दीप जलाने की यह परंपरा आज भी जनमानस में जीवित है। मंदार के स्थानीय लोग बौंसी के भगवान मधुसूदन के मंदिर में दीपावली के अवसर पर दीप अर्पित करने के बाद उस दीये से एक अन्य दीया जलाकर बाल्टी में रखकर अपने घर लाते हैं, फिर उसी से घर के अन्य दीये को प्रज्वलित करते हैं।
      वैसे तो यह जगह पुरातात्विक संपदाओं से अटा पड़ा है। मिट्टी में दबे हुए मंदिरों के अवशेष, शिवलिंग, सर्वत्र बिखरे हुए पत्थर काटकर बनाए गए स्तम्भ, भवन निर्माण में लगाए जानेवाले पत्थर के मेहराब, चकरियां और कितने ही तरह के सामान यहाँ आपको सहज ही देखने को मिल जायेंगे। ये पत्थर इसी मंदार पर्वत की पश्चिमी छोर से काटकर तराशे  जाते थे, जिसके प्रमाण मौजूद हैं। ऐसे तराशे गए स्तम्भ और अन्य भवन निर्माण में प्रयोग में आनेवाली अन्य पत्थर की सामग्रियां यहाँ पर्वत के नीचे कई मीलों तक फैली हुई हैं। इस पूरे क्षेत्र को बालिशा नगर कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों और स्थानीय इतिहास के श्रोतों से पता चलता है कि यह नगर उत्तर गुप्त काल से आबाद था जो मुग़लों के समय परित्यक्त होकर काल के गाल में समा गया।
      लखदीपा मंदिर के अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि यह संरचना आयताकार थी। इसका क्षेत्रफल २५ फीट था। ज़मीन से नौ फीट ऊंचाई वाले एक चबूतरे के ऊपर पत्थर के चार स्तंभों पर इस मंदिर को टिकाया गया था जिसपर मंदिर के ऊपर का गुम्बद अवस्थित था। यह गुम्बद बंगाल-शैली का था। अन्दर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे आधे कटे हुए विशाल टेनिस बॉल को आधार बनाकर इसे मोर्टार से ढाला गया हो।
      नौ सीढ़ियों से होकर इस मंदिर के ढांचे पर चढ़ा जा सकता है। इसके अवशेषों से पता चलता है कि चढ़ने के लिए एक ही ओर सीढ़ी थी। मंदिर के बीचोंबीच साढ़े चार फीट ऊँचा षटकोणाकार बारह इंच फलक वाला मोटा सा एक स्तम्भ था, जो दीप वेदिका कही जाती थी। इस  पर एक विशाल दीप व उसके चारों ओर दर्जनों छोटे दीये जलाये जाने का रिवाज़ था। इस स्तम्भ के छह फलकों में एक-एक दीये जलाने के लिए ताखे बने हैं।
      छह फलकों वाले इस स्तम्भ या वेदी तक चढ़ने के लिए बनाई गई सीढ़ियों और ऊँचे चबूतरे के चारों ओर दीये रखने के लिए ताखे बनाए गए थे। ये ताखे पांच इंच लंबाई और तीन इंच चौड़ाई के हैं जो दो इंच गहरे हैं। कुछ ताखे इनसे भी थोड़े छोटे हैं।
      ऊपर चढ़नेवाली सीढ़ी में दोनों तरफ दीये रखने के ताखे बने हैं। सिर्फ एक तरफ़ में ताखों की संख्या ५१ हैं। कुल १०२ दीये सीढ़ियों में रखकर जलाए जाते थे। इन सीढ़ियों में कुशल कारीगरी की मिशाल झलकती है। ज़मीन से ऊपर की ओर से क्रमशः चौदह-बारह-दस-सात-पांच-तीन की इनकी सज्जा हैं।
      ऊपर चढ़ने के लिए बनाई गई सीढ़ी चबूतरे की जिस दीवार से चिपकी हुई है उनमें दोनों भी ताखे बनाए गए थे। एक ओर ७२ की संख्या में ये ताखे अब भी बने हुए हैं। ऐसा दोनों तरफ है और यह क्रम बारह-बारह का है जिसकी छह पंक्तियाँ हैं। पश्चिमी ओर की इस दीवार में कुल एक सौ ४४ दीये जलाने की व्यवस्था थी। ये ताखे चबूतरे के चारों ओर बने थे।
      इस चबूतरे के चारों कोनों पर लगभग छह फीट ऊँचे चार तुलसी चौरों की तरह संरचना निर्मित की गई थी। ये अवशेष भी धराशायी हैं जिन्हें साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। ये सभी चौरे षटकोणाकार थे। इनके एक-एक फलक में छह ताखे बने हुए थे। इस स्तम्भ या चौरे के ऊपर भी एक-एक बड़ा दीया और उसके चारों ओर कई छोटे-छोटे दीये कई पंक्तियों में जलाने की परंपरा थी।
      इस मंदिर से पंद्रह फीट की दूरी पर पश्चिम, उत्तर और पूरब की दिशा में एक चाहरदीवारी होने का प्रमाण मिलता है। इन दीवारों में भी व्यापक रूप से पांच इंच की दूरी पर दीप रखने के लिए ताखे बने हुए हैं। ये ताखे पांच इंच चौड़े, सात इंच लम्बे और तीन इंच गहरे हैं जो दीवार के दोनों तरफ सिलसिलेवार ढंग से निर्मित किए गए हैं। यह दीवार २५ फीट लंबाई-चौड़ाई और ३० इंच मोटाई की है। इस दीवार की ऊंचाई कितनी रही होगी इसका सही-सही अंदाज़ा खुदाई के बाद उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही संभव होगा।
      लखदीपा या लक्षदीपा से पश्चिम में पर्वत की ओर डेढ़ सौ मीटर या इससे भी अधिक दूरी तक दीवार होने के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें दीये रखने के ताखे बने हैं। यहाँ सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दीवारों में भी उकेरे गए ताखे लाखों दीये जलाए जाने के दावे या कथन का हिस्सा हो सकते हैं।
      यह मंदिर पत्थर के स्तंभों और ईंटों से बनाया गया है जिसमें प्लास्टर के लिए सुर्खी-चूना का उपयोग किया गया है। एक पत्थर के स्तम्भ को दूसरे से जोड़ने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले लोहे की चौकोर या चौपहल छड़ का उपयोग किया गया है। इस छड़ की खासियत है कि इसमें अभी भी जंग नहीं लगे हैं। इससे पता चलता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया गया होगा तब भी तकनीक कितनी विकसित रही होगी!
      इस मंदिर के भवन निर्माण की शैली बताती है कि यह मंदिर ७ वीं -8 वीं शताब्दी का है। भागलपुर के कहलगांव में प्राप्त विक्रमशिला महाविहार के अवशेषों में प्रयुक्त ईंट और लखदीपा के ईंट एक जैसे हैं। दोनों में एक ही प्रकार के भवन निर्माण सामग्रियों और वास्तुकला का प्रयोग किया गया है। गौरतलब है कि मंदार क्षेत्र के इस मंदिर से विक्रमशिला महाविहार की दूरी लगभग ६२ किलोमीटर है। पाल शासक धर्मपाल ने इसकी स्थापना की थी जो पाल वंश के संस्थापक गोपाल के पुत्र थे।
      लखदीपा मंदिर के प्लेटफार्म या चौताल के ऊपर तक चढ़नेवाली सीढ़ी पर्वत की दिशा यानी पश्चिम से थी। इस सीढ़ी के ठीक सामने पूरे इक्यावन फीट की दूरी पर पार्वती का मंदिर था, जिसका दो मंजिला भग्नावशेष अब भी झाड़ियों में मौजूद है। और, ठीक इसके इक्यावन फीट आगे पर्वत की ओर शिव मंदिर था। इसके मलबे बताते हैं कि यह मंदिर भी तीस फीट से नीचे का नहीं रहा होगा। सामान्य तौर पर ज्ञात होता है कि इन टूटे मंदिरों में कोई मूर्ति नहीं है। शिव-पार्वती मंदिरों की परम्परा के अनुरूप शिव के साथ नंदी-भृंगी और गणेश का होना अनिवार्य है लेकिन ये कहाँ स्थापित रहे होंगे मलबे में यह अनुमान लगाना मुश्किल है। ये दोनों मंदिर और इसकी चाहरदीवारी में भी दीये रखने के ताखे बने हुए हैं जो लाखों दीये जलाने की परंपरा का हिस्सा थे।
      पार्वती मंदिर में नीचे चारों ओर सुन्दर परिक्रमा पथ है जबकि शिव मंदिर के अवशेषों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘आधी परिक्रमा’ पथ का नियमानुसार अनुपालन यहाँ भी किया गया होगा। इन मंदिरों के बाहर भी दीये रखने के कुछ ताखे बने हुए हैं लेकिन ये हाथ की पहुँच से बाहर हैं। ऐसा लगता है कि सिर्फ खास उत्सवों पर ही यहाँ दीये जलाए जाते होंगे जिनमें दीपावली भी एक थी।
      इन दोनों मंदिरों के भग्नावशेष कंटीली और खुजली वाली झाड़ियों से घिरे हैं। यहाँ तक पहुंचना कठिन तो जरुर है मगर असंभव नहीं।
      इस जगह के अध्ययन से पता चलता है कि पर्वत से बहकर पानी इस ओर आता होगा, अतएव इससे होनेवाली क्षति से तीनों मंदिरों को बचाने के लिए ड्रेनेज की व्यवस्था भी अच्छी की गई थी। शिव मंदिर से लगभग सौ फीट आगे पश्चिम में मंदार पर्वत की तरफ लखदीपा, पार्वती और शिव मंदिर की सतह से काफी ऊँचा एक टीला है जिसे देखने से पता चलता है कि यह ईंटों और अन्य प्रकार की भवन निर्माण में प्रयुक्त तत्कालीन सामग्रियों से बना है जो अब मलबों के रूप में मौजूद है। यहाँ मृदभांड या टेराकोटा से बने बर्तनों के अंश काफी मात्रा में बिखरे पड़े हैं। इस लेखक को यहाँ से परतदार ग्रेनाईट (जिससे स्लेट का निर्माण किया जाता है) और चीनी मिटटी से बने बर्तनों के कुछ टुकड़े भी प्राप्त हुए हैं।
      इस ढूह के उत्तर और दक्षिण दिशा में क्रमशः रानी और राजा पोखर हैं। इसके बारे में किंवदंती है कि इनमें रानी और राजा अलग-अलग स्नान करते थे। फिर तो यह स्वाभाविक ही है कि यहाँ उनके ठहरने की भी व्यवस्था रही होगी। शायद, यह ढूह उसी छोटे राजनिवास के मलबे पर टिका है। भारतीय पुरातत्व संस्थान अगर यहाँ खुदाई करे तो सब साफ़ हो जायेगा।
      विदित हो कि उपरोक्त लखदीपा मंदिर की चर्चा अंग्रेज़ सर्वेयर फ्रांसिस बुकनन (हेमिल्टन), जोसेफ़ बायर्ने व अन्य ने भी की है लेकिन किसी ने भी इसके नाम की चर्चा नहीं की है। अलबत्ता, इतिहासकार डॉ. अभय कान्त चौधरी और शास्त्रीय विद्वानों ने बालिसा नगर के इस विशिष्ट मंदिर लखदीपा (लक्षदीपा) की चर्चा की है, जहाँ दीपावली के अवसर पर लाखों दीपक जलाने की परंपरा थी। बालिसा के हरेक घर से एक ही दीप जलाने के नियम का अनुपालन ईमानदारी से किया जाता था। बालिसा का यह लखदीपा मंदिर भगवान मधुसूदन को समर्पित था।
      कहते हैं कि बावन गलियां, चौवन बाज़ार वाला नगर बालिसा अपने चारों ओर खूबसूरत तालाबों से घिरा था जिनमें रंग-बिरंगे कमल के फूल लगे थे। सभी लक्षणों से परिपूर्ण प्राचीन काल का यह नगर हर दृष्टिकोण से समृद्ध था जिसे नष्ट कर दिया गया। अबतक प्रकाशित तथ्यों के अनुसार, बंगाल के नवाब दाउद खां कर्रानी के सेनापति कालापहाड़ ने इसे बर्बाद कर दिया लेकिन वस्तुस्थितियाँ इसे सिरे से खारिज़ करती हैं।

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Wednesday, April 12, 2017

बौंसी ‘गुरुधाम’ में आए राष्ट्रपति



भारत गणराज्य के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी बौंसी के ‘श्यामा चरण योगपीठ’ गुरुधाम विगत 04 अप्रैल 2017 को आए और इस संस्था में धार्मिक दीक्षा की इच्छा व्यक्त की. यहाँ उन्होंने बताया कि उनकी माताजी भी इस संस्था के संस्थापक भूपेंद्र नाथ सान्याल महाशय से दीक्षित थीं. इस यात्रा क्रम में वे रांची से देवघर आए और बाबा बैद्यनाथ की विधि-विधान से पूजा-अर्चना की. 11 पंडितों ने यहाँ उनको पूजा कराई. फिर वे प्राचीन विक्रमशिला विश्वविद्यालय की रूपरेखा देखने कहलगांव (भागलपुर) पहुंचे. यात्रा के अंत में वे गुरुधाम पहुंचे. यहाँ उन्होंने सागर मंथन वाले मंदार पर्वत को भी देखा.












Wednesday, January 18, 2017

Lord Madhusudan



मंदार तुझे शत बार नमन


नरेश जनप्रिय  

मंदार तुझे शत बार नमन ।
एक शिलाखंड अवतार नमन॥

अति गरिमामयी तेरा अतीत
तेरी वेद-पुराण में भरी कथा ।
समस्त देवों के हित तूने
मथनी बनकर सागर को मथा ॥
तेरे ही श्रम से, हे मंदार !
निकले समुद्र से चौदह रतन । 
मंदार तुझे शत बार नमन॥

तुम सब धर्मों के केंद्र स्थल
अनगिनत कुंड तेरी गर्दन पर । 
हो जाते धन्य-धन्य मानव
तेरे पावन भाल का दर्शन कर॥
सृष्टि के मूक गवाह को पा
आह्लादित बांका का कण-कण । 

मंदार तुझे शत बार नमन॥

संताली लोक गीतों में मंदार

लोकगीत वस्तुतः किसी भी समाज के जनमानस का आइना होता है. सदियों से अनाम- अनजाने कंठों में रचे-बसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी को सहज परंपरागत ढंग से हस्तांतरित होनेवाले इन गीतों में लोकमानस के हर्ष-उल्लास, आशा-आकांक्षा, कुंठा-संत्रास आदि मनोभावों की कल्पना युक्त सरस अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
तथाकथित आधुनिकता और दूसरों की नक़ल करने की दौड़ में आज हमने ‘पुरातन’ खो दिया है. किन्तु, वर्तमान परिवेश में जब हम अपनी परंपरागत साहित्य या संस्कृति की बात करते हैं तो लोक जगत हमें अपनी ओर खींचता है. यदि आदिवासी लोक-साहित्य की तरफ मुखातिब हों तो यह खिंचाव कुछ ज्यादा ही चुम्बकीय महसूस होता है.
संताल आदिवासी बिहार और झारखण्ड राज्यों की प्रमुख जनजातियों में से एक है. संताल परगना प्रमंडल के अतिरिक्त बांका, भागलपुर, मुंगेर, जमुई, कटिहार, पूर्णिया, गिरिडीह, धनबाद, पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूम जिले में ये बसे हुए हैं. बिहार, झारखण्ड के अलावे पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, मेघालय, मिजोरम, आदि राज्यों तथा पड़ोसी देश नेपाल और बांग्लादेश के दिनाजपुर जिले में इसकी आबादी देखी जा सकती है.
संताल जनजाति का कोई लिखित इतिहास नहीं है परन्तु इनके बीच प्रचलित रीति-रिवाज़ों, लोक मान्यताओं और साहित्य में परंपरागत ढंग से इनके ऐतिहासिक तथ्य सुरक्षित हैं.
प्रसिद्ध मंदार पर्वत की महिमा युगों से इनके सामाजिक आचार-व्यवहार, संस्कृति और लोक गीतों में भरे पड़े हैं. संतालों में प्रचलित परम्परानुसार जब कोई छोटा अपने से बड़े को प्रणाम करता है तो आशीर्वाद स्वरूप वे बच्चों को कहते हैं “ मंदार बुरु लेका जीवी हारा कोक ताम मा” जिसका अर्थ है मंदार की तरह लंबी उम्र जियो और विशाल बनो.
इनके बापला (विवाह) पर्व –त्योहारों विभिन्न संस्कारों एवं अन्य पारंपरिक गीतों में अधिकतर मंदार पर्वत की महिमा का वर्णन मिलता है. तो आइये ऐसे कुछ उदाहरणों को देखते हैं –
मंदार बुरू चोट खोन
तोवा नातुक कान जिरी-हिरी .
आम गेचों मरांग दादा जोतो खोनेम
तोवा नातुक कान जेम्बेदोक में ..
अर्थात, मंदार पर्वत के ऊपर से झर-झर बह रहा है दूध का झरना. भैया हम सब में आप ही सबसे बड़े हैं, दूध पीने के लिए आप ही सबसे पहले मुंह लगाएं.
मंदार बुरु को सेंदायेदा
शिकारिया बेन तायनोम एना
आबेन दो शिकारिया नोंडे बाड़े
ताहेन बेन, माराक लिबाय-लेबोय दाक कीन ञूंया.
अर्थात, मंदार पर्वत पर शिकार करने के लिए सभी शिकारी चले गए हैं पर तुम दोनों पीछे छूट गए हो. अब तुम दोनों यहीं पर रुक जाओ. झूमते हुए मोर का जोड़ा पानी पीने के लिए अब यहीं आने वाला है.
मंदार बुरु चोट रे
आड़ी जोतोन तेञ डाडी आकात
ओले सेपे उमातिञ बोडेयापे
गातेञ ए उमातिञ बोडेयापे     
गातेञ ए उमातिञ लोलो सितुंग.
अर्थात, मंदार पर्वत के ऊपर बड़े यत्न से मैंने एक चुआं बनाया है. उसमें स्नान कर उसे कोई गंदा मत करना. उस पानी में मेरी प्रेमिका धूप में स्नान करेगी.
मंदार बुरु चोट रे
कोल बादोली मोयरा कुड़ी
बिन रोड़ लांदा, तेगे लांदा
लेकाय ञेलोक कान
कोल बादोली मोयरा कुड़ी.
अर्थात, मंदार पहाड़ की चोटी पर एक मोयरा युवती कोयल की तरह हंस रही है. वह मोयरा युवती कोयल की तरह बिना हंसी के ही हंसने की तरह लग रही है. (मोयरा एक जाति है.)
मंदार बुरु चोट खोन
पिंचार माराक कीन उडावेना
पिंचार माराक दोकीन बांग काना
जुरी कुड़ी याक साड़ी ओरांगोक कान.
अर्थात, देखो! मंदार पर्वत की चोटी से उड़ गया वो सुन्दर पंखवाला मोर का जोड़ा. वह मोर पंछी का जोड़ा नहीं, लगता है कि दो युवतियां अपनी साड़ियाँ लहरा रही हैं.
मंदार बुरु चोट रे
आड़ी कुचित रे सोनोत बाहा
दारेञ देजोक रेमा डार
जानुम जांगाञ रोगोक कान
अर्थात, मंदार पर्वत की चोटी पर सोनोत के फूल खिले हैं. ये बड़े ही कठिन स्थान पर हैं. जब फूल तोड़ने जाती हूं तो मेरे पैर में कांटे चुभ जाते हैं. हाय! कैसे तोडूंगी उस सोनोत के फूल को?
संताल जनजाति का सबसे महान पर्व ‘सोहराय’ (वन्दना) है. इस अवसर पर गाए जानेवाले सोहराय लोकगीतों में मंदार पर्वत का वर्णन कुछ इस प्रकार मिलता है –
मंदार बुरु दो दायना
होरा से डाहारा ना दाय
रामे-लखन झाम-झाम कीन
देजोक-फेडोक कान ना दाय.
होर हो दाय होर गेया
डाहार हो दाय डाहार गेया
रामे-लखन झाम-झाम कीन
देजोक-फेडोक कान ना दाय
अर्थात, ओ दीदी! मंदार पर्वत में सड़क या रास्ता है या नहीं? राम-लक्ष्मण झूमते हुए चढ़ते और उतरते हैं.
बहन! मंदार पर्वत के ऊपर से नीचे उतरने के लिए सड़क बने हुए हैं. उसी सड़क से राम-लक्ष्मण झूमते हुए आते-जाते हैं.
मंदार बुरु देजोक-फेडोक
दाह्ड़ी मैरी ञूरेन तीञ
सेदाय लेका हित पीरित
बानुक लांगा मैरी
दाहड़ी मैरी ओहोञ हालांग ले.
अर्थात, ओ प्रियतमा! मंदार पर्वत पर चढ़ने-उतरने में मेरी पगड़ी गिर गई है. थोड़ा, उसे उठा देना तो!
नहीं प्रियतम, नहीं उठाऊंगी. हमदोनों में अब पहले जैसी दोस्ती नहीं रही.
मंदार बुरु देजोक-फेडोक
दाक दो दायना तेतांग किदींञ
दाक दो दायना तोका रेलांग यूंञ.
होड़ लेबेत बोडे दाक दो दाय
बालांग यूंञ दाय.
आलांग-तेतांग डाडिया, ना दाय
रिला-माला-सितिञ दाक लांग यूंञर! 
रिला-माला-सितिञ दाक तेलांग यूंञ जियाड़ोक.
अर्थात, दीदी मंदार पर्वत पर चढ़ने-उतरने में मुझे प्यास लग गई है. दीदी बताओ, मैं पानी कहाँ पियूं?
बहन, लोगों के आने-जाने से पानी गन्दा हो गया है. उसे नहीं पियेंगे. दोनों मिलकर मंदार पर्वत पर चुआं बनायेंगे. उससे स्वच्छ निर्मल जल निकलेगा. उसी को हम दोनों पियेंगे.
सीता नाला दाक दो दाय
फारया वासे वोड़े गेया दाय
सीता कापरा कीन
उम नाड़कान कान ना दाय
सीता नाला दाक दो दायना
रिला माला साफ़ा मेनाक
सीता कापरा कीन
उम नाड़कान कान ना दाय.
अर्थात, दीदी बताओ! सीता कुंड का पानी साफ़ है या गंदा? उस जल में सीता और कापरा स्नान कर रही है.
बहन! सीता कुंड का जल बिलकुल ही स्वच्छ और निर्मल है इसलिए सीता और कापरा स्नान कर रही है.
(संताल जनश्रुति में सीता और कापरा बहन थीं.)            
गातेञ तिरयोय ओरोंग मंदार बुरु रे
इञ दोंञ नातेन बाड़ाय दाक लो घाट रे
कान्डांग बागियाक रेमा होड़को ञेलेञ कान
बाञ सेनोक रेमा गातेञ ए रूहादीञ
होड़ रोड़ दोरेञ सहाव गेया रे
गातेञ नेगेर दो तोहोञ सहावले.
अर्थात, मंदार पर्वत पर मेरे प्रियतम बांसुरी बजा रहे हैं. मैं पनघट से सुन रही हूँ. यदि मैं पनघट पर घड़ा छोड़ के जाती हूं तो लोग क्या कहेंगे? ये तुम्हारे लिए भी बड़ी लज्जा की बात होगी. 

गुजरात में समुद्र के नीचे मंदार का सच

समय-समय पर हमें कुछ ऐसे प्रमाण मिलते रहते है जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि हमारे पौराणिक पात्र, पौराणिक घटनाएं मात्र हमारी एक कल्पना नहीं, बल्कि एक हक़ीक़त है। इसी क्रम में एक और नया प्रमाण मिला है देवताओं और दानवों के बीच हुए समुद्रमंथन के बारे में। जिसमे देवताओं और दानवों ने वासुकि नाग को मन्दराचल पर्वत के चारों ओर लपेटकर समुद्र मंथन किया था।
दक्षिण गुजरात के समुद्र में एक पर्वत मिला है। कहा जा रहा है कि यह वही समुद्रमंथन वाला मंदार पर्वत है। वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसकी पुष्टि भी की जा चुकी है। पिंजरत गांव के समुद्र में मिला पर्वत बिहार के बांका में विराजित मूल मंदार शिखर जैसा ही है। कहा जा रहा है कि गुजरात और बिहार का पर्वत एक जैसा ही है। दोनों ही पर्वत में ग्रेनाइट की बहुलता है। इस पर्वत के बीचों-बीच नाग आकृति भी मिली है।
सामान्यतः समुद्र की गोद में मिलने वाले पर्वत ऐसे नहीं होते। सूरत के आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी ने कार्बन टेस्ट के परीक्षण के बाद यह निष्कर्ष दिया है। उन्होंने दावा किया है कि यह समुद्र मंथन वाला पर्वत ही है। इसके समर्थन में अब प्रमाण भी मिलने लगे हैं। ओशनोलॉजी ने अपनी वेबसाइट पर इस तथ्य की आधिकारिक रूप से पुष्टि भी की है।
द्वारकानगरी की खोज, मिला मंदार शिखर :
सूरत के ओलपाड से लगे पिंजरत गांव के समुद्र में 1988 में प्राचीन द्वारकानगरी के अवशेष मिले थे। डॉ. एसआर राव इस साइट पर शोधकार्य कर रहे थे। सूरत के मितुल त्रिवेदी भी उनके साथ थे। ज्ञातव्य हो कि ये डॉ. एसआर राव वही हैं जिन्होंने समुद्र की तली में श्रीकृष्ण की द्वारिका के प्रमाण ढूंढे हैं। एक विशेष कैप्सूल में डॉ. राव के साथ मितुल त्रिवेदी भी समुद्र के अंदर 800 मीटर की गहराई तक गए थे। तब समुद्र के गर्भ में एक पर्वत मिला था। इस पर्वत पर घिसाव के निशान नजर आए। ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने पर्वत के बाबत गहन अध्ययन शुरू किया। पहले माना गया कि घिसाव के निशान जलतरंगों के हो सकते हैं। विशेष कार्बन टेस्ट किए जाने के बाद पता चला कि यह पर्वत मंदार पर्वत है। पौराणिक काल में समुद्र मंथन के लिए इस्तेमाल हुआ पर्वत यही है। दो वर्ष पहले यह जानकारी सामने आई, किन्तु प्रमाण अब मिल रहे हैं।
वीडियो-आर्टिकल :
ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने वेबसाइट पर लगभग 50 मिनट का एक वीडियो जारी किया है। इसमें पिंजरत गांव के समुद्र से दक्षिण में 125 किलोमीटर दूर 800 मीटर की गहराई में समुद्र मंथन के पर्वत मिलने की बात भी कही है। वीडियो में द्वारकानगरी के अवशेष की भी जानकारी है। इसके अलावा वेबसाइट पर प्राचीन द्वारका के आलेख में ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट द्वारा भी इस तथ्य की पुष्टि की गई है।
पहचान के लिए टेस्ट :
आर्कियोलॉजी डिपार्टमेंट ने सबसे पहले अलग-अलग टेस्ट किए। इनसे साफ हुआ कि पर्वत पर नजर आ रहे निशान जलतरंगों के कारण नहीं पड़े हैं। तत्पश्चात, एब्स्यूलूट मैथड, रिलेटिव मैथड, रिटन मार्कर्स, एज इक्वीवेलंट स्ट्रेटग्राफिक मार्कर्स एवं स्ट्रेटिग्राफिक रिलेशनशिप्स मैथड तथा लिटरेचर व रेफरेंसेज़ का भी सहारा लिया गया।
विभाग का खुलासा :
आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी के बताए अनुसार यू-ट्यूब पर ओशनोलॉजी विभाग ने 50 मिनट का एक वीडियो अपलोड किया है। इसमें विभाग ने पिंजरत के पास 125 किमी दूर समुद्र में 800 फुट नीचे द्वारका नगरी के अवशेषों के साथ मन्दराचल पर्वत की भी खोज की है। ओशनोलॉजी की वेबसाइट पर आर्टिकल में विभाग द्वारा इस बात की पुष्टि कर दी गई है।
पौराणिक कथा :
द्वारका नगरी के पास ही देवताओं और राक्षसों ने अमृत की प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया था। इस मंथन के लिए मन्दराचल पर्वत का उपयोग किया था। समुद्र मंथन के दौरान विष भी निकला था, जिसे महादेव शिव ने ग्रहण कर लिया था और शिव नीलकंठहो गए।
पहचान को लेकर विवाद :
गुजरात में समुद्र के नीचे पाए गए एक बड़े ग्रेनाइट चट्टान की मंदार पर्वत जैसी प्रकृति होने के कारण इसे आर्किओलॉजिकल और ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट द्वारा पौराणिक मंदारहोने की पुष्टि करने से विद्वानों में काफी विवाद है। अंगक्षेत्र की स्थानीय भाषा अंगिका के विद्वान व कई दर्जन पुस्तकों के लेखक डॉ. अमरेंद्र इसे विवादों में रहने की एक चाल मानते हैं। वे कहते हैं कि मंदार सदृश एक चट्टान के मिलने भर से ही मंदार कह देना सही नहीं है. मंदार साबित करने के लिए ग्रेनाइट की एजिंग ही काफी नहीं है.    
पौराणिक मंदार के जानकार श्री फतेह बहादुर सिंह पन्नाका इस आलोक में कहना है कि अगर मान भी लिया जाए कि वह मंदार पर्वतही है तो इसके और भी प्रमाण होने चाहिए। सिर्फ मंदार जैसी संरचना होने से ही समुद्र के एक बड़े ग्रेनाइट चट्टान को मंदारकैसे मान लिया जाए? क्या वहां मंदिरों और तलाबों के अवशेष पाए गए? क्या इंद्र की बसाई हुई बालीसा नगरी के अवशेष वहां हैं? अगर नहीं, तो इतनी आसानी से कैसे किसी मान्यता को ध्वस्त या स्थापित किया जा सकता है?
इस मुद्दे पर सामाजिक संस्था मंदार विकास परिषदके उदय शंकर झा चंचलसवाल उठाते हैं कि परंपरागत ढंग से मान्य संस्कारों में जिस मंदार का जिक्र यहां की सभी स्थानीय जातियों-जन जातियों में है वह अन्यत्र कैसे हो सकता है? यहां की जनजातियों के लिए यही मंदार बुरू (पर्वत) है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कारों में आ रहा है। प्राचीन काल से संस्कारों में, गीतों में रहे इस मंदार को मंदार जैसी कोई प्रचारित संरचनाभला कैसे क्षणिक पुष्टि कर सकती है? इनका कहना है कि विष्णु पुराण में जिस मंदार की पहचान के लिए चीरऔर चांदननदी के जिक्र हैं वे पहचान क्या समुद्र में मिली उस संरचना के साथ भी है? गजेटियर, सर्वे और पुराने कागज़ातों में जिसका वर्णन है, वह मंदार कहीं और होने के दावे को ये खारिज़ करते है। इस आशय में इन्होंने उपरोक्त दोनों विभागों को पत्र लिखकर भ्रमित न करने का अनुरोध किया है। उन्होंने विष्णु पुराण और स्कंद पुराण के श्लोकों का हवाला भी दिए हैं – 
चीर चान्दनयोर्मध्ये मंदारो नाम पर्वतः।
तस्या रोहण मात्रेण नरो नारायणो भवेत् ।।
अर्थात, चीर और चान्दन के मध्य मंदार नाम का पर्वत अवस्थित है, उस पर आरोहण करने वाले मनुष्य को देवत्व प्राप्त होता है।
भागीरथ्याः परेपारे दक्षिणस्याम् महामते ।
अंग देशे सुविख्यातो, मंदारः पर्वतोत्तमः।।
अर्थात, भागीरथी यानी गंगा के उस पार में दक्षिण की ओर विख्यात अंग देश में मंदार पर्वत सबसे उत्तम है।
श्री चंचल कहते हैं कि समुद्र के नीचे भी नदियों के अवशेष मिलने के कई प्रमाण हैं तो क्या चीर और चांदन नदी के अवशेष गुजरात के समुद्र के नीचे भी प्राप्त हुए हैं? गंगा के दक्षिण में अंग प्रदेश में मंदार अवस्थित है। ओशनोलोजी और आर्कियोलोजी विभाग को इसे भी साबित करना होगा, जो कि टेढ़ी खीर है।          
उपरोक्त विद्वानों ने कई और विंदुओं पर प्रश्नचिह्न खड़े किए जिन्हें साबित करने के लिए उनके माथे पर बल पड़ना स्वाभाविक है। और यहां, जो सबसे बड़ी बात है वो है लोक-मान्यताओं को कोई भी व्यक्ति या संस्था झुठला नहीं सकते हैं। शास्त्र के आधार पर मंदार की पहचान, मंदिरों-मठों के अवशेष, तलाबों व आसपास की आबादी या नगरों की उपस्थिति और लोक-साहित्य भी काफी मायने रखते हैं।

भगवान मधुसूदन का रथ


भगवान मधुसूदन तो विष्णु का ही एक रूप हैं. कहते हैं कि मधु नामक दैत्य का वध करने के बाद विष्णुजी मधुसूदन कहलाए. किंवदंती है कि मधु का वध करने के बाद उन्होंने उसके सिर पर मंदराचल को रखकर अपने पैर से इस पर्वत को दबाए रखा. इसी कारण से मंदार पर्वत के सबसे ऊपर वाले मंदिर में पहले भगवान मधुसूदन का ही मंदिर बनाया गया था जिसे अब जैनियों ने यहाँ के ज़मींदारों से पट्टे पर लेकर अब एकाधिकार जमा लिया है.
सन १५७३ के बाद जब मंदार पर काला पहाड़ का आक्रमण हुआ तब से भगवान मधुसूदन को बौंसी में स्थापित कर दिया गया और पर्वत के शिखर के मंदिरों में इनके चरण चिह्नों की पूजा की जाने लगी. कालांतर में जैनियों ने मंदिर पर आधिपत्य जमाने के बाद सभी पौराणिक-ऐतिहासिक अवशेष हटा दिए. यहाँ तक कि मंदिर की संरचना में भी छेड़छाड़ किया.

भगवान मधुसूदन के बौंसी में स्थापित किए जाने के बाद कुछ परम्पराएं डाली गईं जिनमें उनका मकर संक्रांति के अवसर पर मंदार की तलहटी में अवस्थित फगडोल पर जाना भी तय हुआ और रथयात्रा के अवसर पर नई बालिसा नगरी अर्थात बौंसी बाज़ार तक आना भी. इन दोनों परम्पराओं को निभाने के लिए तब के राजाओं-ज़मींदारों की ओर से हाथी और रथ का प्रबंध किए जाने की परंपरा थी.
पहले, लकड़ी और लोहे के हाल चढ़े पहियों से बने दो मंजिला रथ को तैयार किया गया था. इसमें बगडुम्बा ड्योढ़ी का काफी योगदान था. कहते हैं, हाल के कुछ वर्षों पहले तक हाथी से भगवान की सवारी मकर संक्रांति को मंदार तक जाती थी जिसकी व्यवस्था बगडुम्बा ड्योढ़ी के श्री अशोक सिंह करते थे. हाथी की अनुपलब्धता और बौंसी मेले के प्रशासनिक कब्जे के कारण इन्होंने अपना हाथ पीछे खींच लिया.
रथयात्रा के समय भगवान की सवारी रथ को श्रद्धालु-जन खींचते हुए बौंसी बाज़ार तक लाते थे और फिर वापस ले जाते थे. इस वक़्त काफी भीड़ रहती थी. आस-पड़ोस की आबादी इस परम्परा को देखने बौंसी में जमा होती थी. इस मौके पर बारिश जरुर होती और लोग इस पवित्र बारिश की हल्की फुहार में भींगकर खुद को धन्य समझते थे. कहते हैं कि भगवान जगन्नाथ ही मधुसूदन हैं, तो परम्पराएं तो वही रहेंगीं.
इस रथ की भी एक अपनी कहानी है.
सन १९९6 की रथयात्रा के दौरान बौंसी बाज़ार जाने के क्रम में रेलवे क्रॉसिंग के नजदीक रथ के कुछ पहिये टूट गए. रथ को बाज़ार तक ले जाना मुश्किल था. किसी तरह से इसे खींचकर-जुगाड़ लगाकर मंदिर तक वापस लाया गया. श्री फ़तेह बहादुर सिंह ‘पन्ना दा’ एवं अन्य धर्मप्राण लोगों की सहायता से इस रथ की मरम्मती के बदले एक नया रथ बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली. निर्णय यह भी लिया गया कि नया रथ लकड़ी का नहीं बल्कि लोहे का होगा. नए प्रस्ताव को मंजूरी व धन की व्यवस्था में काफी वक़्त निकल गया. सन १९९7 में अगली रथयात्रा के मात्र ३४ दिन शेष थे और भगवान के लिए अबतक कोई व्यवस्था नहीं हो पायी थी. ऐन मौके पर पंजवारा के प्रेमशंकर शर्मा को नए रथ के निर्माण का महती कार्य सौंपा गया. जरुरत की सभी चीज़ें रांची से खरीदकर लाई गयीं और अपने ३ कारीगरों के साथ एड़ी चोटी एक करके श्री शर्मा ने रथयात्रा के दिन सुबह तक इस रथ को पूरा कर दिया. इसमें १२ पहिये थे और इसे भी दो मंजिला तैयार किया गया था. सन २०१५ में रथयात्रा से पूर्व इसमें ४ पहिये और जोड़ दिए जाने से यह १६ पहियों का हो गया है. अन्य ४ पहिये जोड़े जाने के पीछे यह तर्क था कि १२ पहिये मधुसूदन के रथ में जोड़ा जाना अशुभ है. इस रथ का एक-एक पहिया लगभग एक क्विंटल का है. रथ के आर्किटेक्चर की ज़िम्मेदारी भी श्री शर्मा ने बखूबी निभाई.
समय सदा बदलाव चाहता है. और, भगवान के रथ में भी बदलाव के लिए सोचा गया. इसी क्रम में पंडाटोला के श्री पटल झा की सक्रियता से भगवान की सवारी के लिए गरुड़-सदृश एक रथ बनाने का निर्णय लिया गया. इसके लिए पुरानी जीप की एक चेसिस खरीदी गई. अर्थाभाव के कारण यह चेसिस कई वर्षों तक प्रेमशंकर शर्मा के वर्कशॉप में पड़ी रही. इसपर एक दिन एक स्थानीय युवक राजीव ठाकुर की निगाह पड़ी और इस काम को पूरा कराने का जिम्मा उन्होंने उठा लिया. इसके लिए इन्होंने समाज के कुछ सक्रिय बुद्धिजीवियों व वरिष्ठ लोगों के साथ बैठकें कर इसे साकार देने की एक रूपरेखा तय की गयी. रथ के तकनीकी पहलुओं पर प्रेमशंकर शर्मा व अन्य से चर्चा के बाद भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के रूप को बनाने के लिए भागलपुर के श्री गुड्डू मिस्त्री का चयन किया गया. श्री गुड्डू ने शीशम की लकड़ी को तराशकर बखूबी गरुड़ का रूप दिया. इसमें इस्पात के कुछ स्प्रिंग के प्रयोग किए गए जिससे गरुड़ के पंख हिलते-डुलते से प्रतीत हों. जब यह संरचना पॉलिश की गई तो इसका स्वरुप और निखर गया. इसी वक़्त पुरानी जीप की उस चेसिस पर एक और नया रथ प्रेमशंकर शर्मा द्वारा तैयार किया जा रहा था. दो मंजिल का यह रथ भी तैयार किये जाने के बाद ढाँचे में तय स्थान पर गरुड़ को स्थापित कर दिया गया. इस रथ को ३० दिनों में तीन मजदूरों की सहायता से तैयार किया गया. इस रथ को ट्रैक्टर की सहायता से संचालित किया जा सकता है.   
तैयार होने के बाद इस रथ की छटा देखते ही बनती है. २०१६ की रथयात्रा के वक़्त भगवान मधुसूदन की सवारी इसी से निकली. अब ठाकुर मधुसूदनजी इसी रथ से हरवर्ष मंदार तक जायेंगे जिसे लोगों द्वारा खींचने की जरुरत नहीं पड़ेंगी.
भगवान के इन दोनों रथों को रखने के लिए अलग-अलग घर हैं. इन रथों को इन घरों से सिर्फ भगवान की यात्रा के वक़्त या फिर किसी प्रकार की तकनीकी दिक्कत या आवश्यक बदलाव के लिए वर्कशॉप तक ले जाने के लिए ही निकाला जाता है. बौंसी मेला के अवसर पर आम लोगों के दर्शनार्थ इसे रथ-घर के बाहर रखे जाने की योजना है.

Monday, January 16, 2017

-: विश्व में अव्वल :-



विश्व में लगभग ७०० मीटर ऊंचा ‘मंदार’ एकलौता पर्वत है जिसका मुख्य पर्वत एक ही चट्टान से बना है. यह मुख्य पर्वत अपनी श्रृंखलाओं में सबसे ऊँचा है।

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पुरात्व विशेषज्ञ बताते हैं कि यह पर्वत ‘हिमालय’ से भी पुराना है।

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मंदार का लखदीपा विश्व का एकलौता मंदिर है जहां एक लाख दीये जलाने के लिए उतने ही ताखे बनाए गए थे जिसे अब भी इस भग्नावशेष में देखे जा सकते हैं।
पूरे भारतवर्ष में एक भी प्राचीन मंदिर अब तक ज्ञात नहीं है जहाँ एक साथ एक लाख दीये जलाने की व्यवस्था हो।

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जनजातियों या आदिवासियों का सबसे बड़ा मेला मंदार पर्वत के नीचे प्रतिवर्ष १३ जनवरी को लगता है. सिर्फ रातभर की पूजा के लिए तकरीबन ८० हज़ार लोग अलग-अलग समूहों में यहाँ आते हैं और बेहद सर्दी में भी स्नान-पूजन-ध्यान-भजन-कीर्तन करते हैं. ये आदिवासी कई प्रान्तों से आते हैं और राम-लक्ष्मण की पूजा करते हैं. इतने कम समय के लिए इतनी बड़ी संख्या में आदिवासियों का धार्मिक प्रयोजन के लिए जुटने की खबर आपने भी कभी सुना और देखा भी नहीं होगा. इसे साफ़ा होड़ के अनुयायी कहते हैं।

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शंख कुंड के अन्दर पानी में डूबे पत्थर के शंख का शिल्प आपको अचंभित कर देगा कि इस दुर्गम में इसकी संरचना कैसे की गई होगी!

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Thursday, January 5, 2017



MANDAR : An Audio-Visual Presentation by Bihar Tourism


कभी लाखों दीये जलते थे जहाँ


लखदीपा मंदिर के भग्नावशेष
Photo Credit : Sanjiv Choudhary, Bounsi