पूरी सृष्टि में विभिन्न धर्म-मत-संप्रदायों के मानने वाले हैं। सबके
पूजा-अराधना की पद्धतियां भी विभिन्न हैं। इन अलग-अलग ईश्वर को एक ही सत्ता
माननेवाले संतों को ‘जेडी’ या ‘जेडिथ’ कहा जाता है। इन जेडी संतों की पुनर्जन्म में
आस्था होती है। भारत में ऐसे संतों की संख्या काफी है। योगिराज भूपेन्द्र नाथ
सान्याल भी इसी कड़ी के संत थे। दुनिया की प्राचीन पुस्तक ‘वेद’ और वैदिक परंपराओं
में उनकी आस्था थी। योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी इनके गुरु थे जिनके आदेश से इन्होंने
अपने गुरु की परंपराओं को आगे बढ़ाया।
स्वामी परमहंस योगानंद द्वारा लिखित ‘ऑटोबायग्राफी ऑफ अ
योगी’ को भला कौन नहीं जानता
होगा! यह, किसी योगी द्वारा लिखित
सर्वाधिक बिक्री वाली किताबों में एक है। वे,
स्वामी
श्री युक्तेश्वर गिरि के शिष्य थे और श्री युक्तेश्वर योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी के
शिष्य थे। यहां ऐसा कहा जा सकता है कि श्री युक्तेश्वर गिरी और सान्याल महाशय
गुरुभाई थे। ये सभी क्रियायोगी थे। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि ने ‘द होली साइंस’
लिखा
था जो आज भी काफी प्रासंगिक है। अंग्रेजी में उपलब्ध इस पुस्तक को पश्चिम में काफी
पढ़ा गया और पसंद किया गया।
कहते हैं कि शिर्डी के साईं बाबा के गुरु भी श्यामाचरण लाहिड़ी थे। एक पुस्तक ‘पुराण पुरुष योगिराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी’ में इसका उल्लेख मिलता है। इस पुस्तक को
लाहिड़ीजी के सुपौत्र सत्यचरण लाहिड़ी ने अपने दादाजी की हस्तलिखित डायरियों के आधार
पर डॉ. अशोक कुममार चट्टोपाध्याय से बांग्ला भाषा में लिखवाया था। इसका हिंदी
अनुवाद छविनाथ मिश्र ने किया था। इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘सबका मालिक एक’
कहनेवाले
साईं बाबा भी अपने धर्म का अक्षरसः पालन करते हुए सभी धर्मों का आदर जेडी संतों की
तरह करते थे। यहां यह स्पष्ट है कि साईं भी इसी परंपरा के संत थे।
समुद्र मंथन का गवाह मंदार; सदियों से
देवी-देवताओं, संत-योगियों के
लिए सर्वोत्तम स्थलों में से एक रहा है। रामायण, महाभारत और विष्णु पुराण से अलग भी इसके कुछ लिखित-अलिखित
आदर्श इतिहास हैं। नाथ-संप्रदाय के नाथों और नगाओं से भी यह क्षेत्र अछूता नहीं
रहा। चंपा नगरी के राजकुमार वसुपूज्य ने इसी पर्वत के ऊपर तप किया और निर्वाण को
प्राप्त हुए। कभी अंग महाजनपद तो कभी बंग साम्राज्य का हिस्सा रहे इस मंदार
क्षेत्र में चैतन्य महाप्रभु का आगमन भी हुआ जिसकी चर्चा ‘चैतन्यचरितावली’
में
है। यह भू-भाग महात्मा भोलीबाबा, महर्षि मेंही की
साधना-भूमि भी रही। यहां उन्हें चैतन्य की प्राप्ति हुई और वे रम गए। आचार्य
भूपेन्द्रनाथ सान्याल को अपने गुरु से अवचेतन में जब मंदार क्षेत्र में आश्रम
बनाने का आदेश मिला तो वे उन्होंने अपने गुरुवर की याद में बौंसी-भागलपुर
मुख्यमार्ग पर एक आश्रम बनाकर इसे भारतीय संस्कृति की परंपराओं को बनाए रखने के
लिए सौंप दिया और गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाहन किया।
भागलपुर से 50 किलामीटर की दूरी
पर बौंसी स्थित है। इसी मार्ग पर बौंसी से डेढ़ किलोमीटर पहले सड़क की दाहिनी ओर एक
पुराना लेकिन भव्य मुख्यद्वार है। यही गुरुधाम या आश्रम का मुख्य मार्ग है।
मुख्यमार्ग से लगभग 200 मीटर दूर आश्रम
है लेकिन गेट से चंद कदमों आगे ही बायीं ओर वेद और योगपीठ नजर आने लगता है जो
आश्रम द्वारा संचालित है।
योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय के परम शिष्य आचार्य भूपेन्द्रनाथ सन्याल के
द्वारा 1929 में इस आश्रम की स्थापना
की गयी थी। मंदार पर्वत की तराई में आचार्यश्री ने योगनगरी को बसाया था। इसी परिसर
में अपने परमगुरुदेव श्यामाचरण लाहिड़ी के इच्छानुसार एक मंदिर की स्थापना 1944 में की जो आज भी उसी रुप में विद्यमान है।
मंदिर के एक भाग में सान्याल बाबा ने अपने गुरु योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी
महाशय की प्रतिमा स्थापित की, जबकि दूसरे भाग
में शिव-पंचायतन की स्थापना की थी। यहां की व्यवस्था को सुचारू तरीके से चलाने के
लिए गुरुधाम ट्रस्ट की स्थापना 1943 की गयी जिसे बाद
में 1948 में संशोधित किया गया।
यहां के गुरुभाईयों की मानें तो इस आश्रम की स्थापना का मुख्य उद्देश्य शिष्यों का
नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति करना,
यहां
होने वाले धार्मिक उत्सवों में सेवा व्यवस्था देना सहित अन्य हैं। साथ ही सान्याल
बाबा द्वारा रचित पुस्तकों का प्रकाशन करना भी है।
गुरुधाम आश्रम को क्रिया योग के प्रमुख केंद्र के तौर पर जाना जाता है। योग
क्रिया की दीक्षा देने की परंपरा वर्षों पुरानी है। गुरुधाम आश्रम की स्थापना
आचार्य श्री भूपेन्द्र नाथ सान्याल ने इसी उद्देश्य से की थी कि इस विद्या को
जन-जन तक सूक्ष्म तरीके से पहुंचाया जा सके और अपने उद्देश्य में आचार्य सफल भी
हुए। भारत वर्ष में लाहिड़ी महाशय के शिष्यों द्वारा स्थापित आश्रमों में से
गुरुधाम आश्रम सबसे महत्वपूर्ण है जहां पर क्रिया योग की दीक्षा दी जा रही है।
आचार्य श्री भूपेन्द्र नाथ सान्याल जी के द्वारा एक अन्य आश्रम की स्थापना उड़ीसा
के जगन्नाथ पुरी में वर्ष 1926 में की गई जो आज
भी मौजूद है। ऐसा माना जाता है कि क्रिया योग राजा जनक, श्रीराम और संत कबीर जैसे मनीषियों ने भी किया
था। आचार्य श्री सान्याल बाबा के अनुसार क्रिया योग तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधानामी है जिसमें उन्होंने बताया है कि
प्राणायाम और सद्ग्रंथ के पाठ से ‘आत्म’ का दर्शन होता है। आत्म की ओर जाना ही
स्वाध्याय है। परमगुरुदेव लाहिड़ी महाशय के संप्रदाय में क्रिया योग को वैज्ञानिक
पद्धति से सरलतम एवं व्यवहारिक रूप से उपदेशित किया जाता है जिसे क्रिया योग को
अनुसरण करने वाले साधक दिन में दो बार सुबह-शाम करते हैं।
गुरुधाम आश्रम में प्रातः साढ़े चार बजे से आश्रम की दिनचर्या प्रारंभ हो जाती
है। सुबह में मंगलाचरण का पाठ होता है। इसके बाद सात बजे मंगल आरती होती है जिसके
बाद गुरुदेव की प्रतिमा को प्रसाद चढ़ाया जाता है। दोपहर में भोग लगाने के बाद
प्रतिदिन काफी संख्या में गुरुभक्त प्रसाद ग्रहण करते हैं। दोपहर में मंदिर का पट
बंद रहता है तीन बजे के बाद पुनः मंदिर में वेदपाठी बटुकों के द्वारा वेद-पाठ होता
है। शाम में छह बजे आरती के बाद सत्संग होता है। यहां पर क्रिया योग का अभ्यास
नितदिन किया जाता है। यहां क्रिया योग में अभ्यास पर काफी जोर दिया जाता है जो एक
तरह से गुरु की अनुपालना है। इस आश्रम से क्रिया योग की दीक्षा लेकर काफी संख्या
में वेदपाठी व योगी देश-विदेशों में इसका प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। 1943 से इस आश्रम में निरंतर क्रिया योग की दीक्षा
दी जा रही है।
‘संस्कृत’ देवभाषा कही जाती है जिनसे वेद, उपनिषद,
पुराण, रामायण जैसे शास्त्रों की रचना हुई है। ऋषि
मुनियों ने वेद जैसे आर्ष साहित्य की रचनाओं को वैश्विक स्तर पर संरक्षण देने हेतु
विभिन्न आश्रमों की स्थापना कीं, जहां संस्कृत
माध्यम से सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक कर्मकांडों के सहारे शिक्षार्थियों को ज्ञान
देना प्रारंभ किया। इसी कड़ी में बंगोत्कल योग विद्या से जुडे़ महान साधक आचार्य
भूपेन्द्रनाथ सन्याल ने मंदार क्षेत्र में परमयोगी अपने गुरुदेव व योग प्रवर्तक
श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की स्मृति में गुरुधाम आश्रम की स्थापना की एवं
विरासत में मिली गुरु की कृपा से उन्होंने वेद-विद्या, योग एवं देव भाषा संस्कृत को जन-जन में फैलाने
हेतु ‘श्यामाचरण वेद विद्यापीठ’ की स्थापना की और आज; तब का वह छोटा सा पौधा विशाल वट वृक्ष की भांति
अपने उदेश्य में प्रगति के पथ पर अग्रसर है।
श्यामाचरण वेद विद्यापीठ में प्रथम कक्षा से वेद की पढ़ाई के साथ-साथ
संस्कृत-डिग्री मध्यमा एवं शास्त्री के अध्ययन की व्यवस्था है। प्रथम कक्षा में
वैसे छात्रों का नामांकन किया जाता है जो ब्रह्मचर्याश्रम के साथ-साथ यज्ञोपवित
संस्कार एवं बटुक के रुप में सामवेद व यजुर्वेद की ऋचाओं का अभ्यास पाठ कर सके।
ऐसे ही बटुकों को उत्तीर्णोपरांत क्रमशः मध्यमा और शास्त्री की कक्षाओं में प्रवेश
दिया जाता है।
यहां पर वैदिक संस्कृति की तर्ज पर ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना की गयी है
जिसमें आठ से दस साल के बच्चों को चयनित कर वेद का अध्ययन-पारायण कराया जाता है।
यह इसलिए किया गया ताकि देव भाषा संस्कृत व वेद की शिक्षा अगली पीढ़ी तक जा सके।
यहां की मान्यता है कि संस्कृत अगर पठन-पाठन में रहे तो संस्कार स्वतः ही विकसित
हो जाते हैं।
वर्तमान में आश्रम में गुरुद्वय आचार्य श्री प्रभात कुमार सान्याल एवं आचार्य
श्री अमरनाथ तिवारी गुरुपद पर आसीन हैं जो गुरुभक्तों को सत्य का मार्ग बता रहे
हैं। इस आश्रम में साल में दो बार भव्य आयोजन होता है। इस कड़ी में वसंत पंचमी के
अवसर पर पांच दिवसीय वसंतोत्सव का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर देश-विदेश के
गुरुभाई-बहन यहां पहुंचते हैं। साथ ही,
हजारों
दरिद्रनारायणों को भोजन एवं वस्त्र दिया जाता है। दूसरा आयोजन गुरु-पूर्णिमा के
अवसर पर किया जाता है। इसमें भी हजारों शिष्य आश्रम में पहुंचते हैं और ‘गुरु’ से पल्लवित-पुष्पित
होने का आशीष ग्रहण करते हैं।
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