इस धरती पर जब भी धर्म और
संस्कृति पर संकट छाया है, तब –तब ईश्वर किसी न किसी रूप में धरती पर आते हैं.
कहते हैं कि बंगाल के नदिया जिले में पंडित जगन्नाथ मिश्र और शची के घर पैदा हुए
गौरांग महाप्रभु कृष्ण और राधा के विचित्र और पवित्र प्रेम के साक्षात रूप थे. वे
सन 1485 में पैदा हुए. और ‘नाम संकीर्तन’ के लिए जाने गए. उन्होंने सम्पूर्ण भारत
में हरि बोल की अलख जगाई.
सन १९०५ में चैतन्य महाप्रभु ने
मंदार की यात्रा की. कहा जाता है कि महातीर्थ गया जाने के क्रम में वे मंदार आये.
यहाँ वे काफी बीमार पड़ गए. अपने अनुयायियों से उन्होंने कहा कि हल लेकर जो भी
ब्राह्मण यहाँ से गुजरे वही मुझे चंगा कर सकता है. ऐसे ही एक ब्राह्मण का पांव
धोकर उन्होंने पीया और पुनः प्रस्थान के लिए तैयार हो गए. तभी उन्होंने अपने
भक्तों से कहा था कि इस मंदार कि महिमा अपार है. आगे मैं इसी मंदार क्षेत्र में
पैदा हो रहा हूँ और नाम संकीर्तन कि परंपरा को आगे ले जाउंगा.
वैष्णव परंपरा वाले इस मंदार क्षेत्र
में लगभग ४०० वर्षों के बाद पंडित जहौरी मिश्र व मूर्ति देवी के घर बिहार के बांका
जिले के बौंसी के फागा गाँव में एक बालक पैदा हुआ. छोटी ही उम्र में उनको चेचक हो
गया. तब चेचक का प्रकोप भयंकर था और इससे बच्चों की मृत्यु भी हो जाती थी. गाँव की
मान्यताओं के अनुरूप माँ–बाप द्वारा उनको त्याग देने से मरने से बचाया जा सकता था.
इसलिए उनको राख के ढेर पर फेंक दिया गया था. गौरांग महाप्रभु को भी चेचक की वज़ह से
नीम के पेड़ के नीचे छोड़ दिया गया था, इसलिए वे निमाय कहलाए. यह महज़ संयोग हो सकता
है लेकिन इस संदर्भ में जीवन की कई ऐसी घटनाओं का मिलान किया जा सकता है. उदहारण
के लिए दोनों के पिता का नाम ‘ज’ अक्षर से शुरू होना और माताओं के नाम दो अक्षरों
का होना आदि.
वह वक़्त स्वतन्त्रता संग्राम का
था और इनका पैतृक गाँव फागा अंग्रेज अफसरों के निशाने पर था. इनके चचेरे भाई
भुवनेश्वर मिश्र बड़े विप्लवियों में शुमार थे और परशुराम सेना के मुख्य कर्ता-धर्ताओं
में थे. एकबार अंग्रेजी फ़ौज इनका पूरा घर उजाड़ कर चली गई. उस वक़्त भी ये ‘राम नाम’
में खोये थे लेकिन इनको कोई फर्क नहीं पड़ा. ये बातें स्वयं भुवनेश्वर मिश्र ने
बताई थी. तब कुछ लोग इनको अंग्रेजों का भेदिया भी बताने लगे थे. लेकिन जिसका चित्त
ही राम में बसा हो उसे दुनियादारी कहाँ सूझती है भला! इनदिनों भी वे राम धुन – हरि
बोल में लोगों के साथ रमे रहते थे. अष्टयाम – पैदल संकीर्तन और सनातन धर्म के
प्रचार में लगे रहते थे. धर्म ग्रंथों की चर्चा उसमें समाहित रहती थी. इसका ज्ञान
उन्हें अपने पिता-माता से भी मिला था. वे कहते थे कि मैं धर्म का हूँ और मेरा
लक्ष्य धार्मिक है. लौकिक धन इकठ्ठा करने का मेरा कोई लक्ष्य नहीं है. पारलौकिक ‘हरि
बोल’ ही सच्चा धन है. यही काया से ऊपर है.
पंडित जयानंद ठाकुर ने बांग्ला
पुस्तक ‘चैतन्य मंगल’ में चैतन्य महाप्रभु के बारे में काफी कुछ लिखा है. इनमें
दर्ज महाप्रभु का व्यवहार, जीवनाचार, पुनर्जन्म से इनका काफी व्यवहार मिलता है
जिसे आज भी लोग आश्चर्यजनक मानते हैं.
सनातन धर्म में अवतारों की चर्चा
के क्रम में चार मान्यताएँ हैं - आवेशावतार, प्रवेशावतार, प्रयोजनावतार और नित्यावतार.
लोगों का दुःख दर्द सुनकर संवेदनशील होकर दुःख का अनुभव करना आवेशावतार कहा गया है.
आवेश में आकर कुछ भी कह देना जो सच हो जाए उसे प्रवेशावतार कहा गया है. किसी प्रयोजन के लिए प्राणी का जन्म होना प्रयोजनावतार
कहा गया है. और, गीता के श्लोक “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम...” के अनुसार धर्म की हानि के समय मानव
रूप में अक्सर पैदा होने वाले जातक ही नित्यावतार हैं. कहते हैं, बाबा इन चारों के
प्रतिनिधि पुरुष थे. यही स्थिति गौरांग महाप्रभु की भी थी.
घटना सन १९४० की है. बंगाल से एक विष्णु
भक्त मंगल बाबू मंदार-मधुसूदन नगरी आये थे. यहाँ उनको पता चला कि नीमा नामक गाँव
में एक संकीर्तन मंडली है. मंगल बाबू वहां पहुंचे और कुछ धर्मप्राण बंधू-बांधवों
से मुलाक़ात हुई. वहां उनको पता चला कि हरेक रविवार को यहाँ संकीर्तन के लिए लोग
जुटते हैं. वे नियमित तौर पर हरेक रविवार को वहां आने लगे और पंडित जयानंद ठाकुर
कृत ‘चैतन्य मंगल’ में उद्धृत महाप्रभु का गुणगान सुनाने लगे. वे गुणगान सुनाते
फिर भजन में रम जाते. उनके साथ-साथ लोग भी भाव-विह्वल हो जाते थे.
श्री जड़बलाल झा वहीं के एक
ग्रामवासी थे. वे फागा ग्राम में शिक्षक थे. इन्हीं दिनों उन्होंने अपने एक शिष्य
के बारे में लोगों से जिक्र किया. इस दौरान उन्होंने उनके बाल व्यवहारों की चर्चा
भी की जो लोगों को विचित्र भी लगता था लेकिन गौरांग महाप्रभु के आचरणों से मेल
खाता था. बाबू मोशाय मंगल दादा को आश्चर्य हुआ. उन्होंने लोगों को बताया कि महाप्रभु
की चरितावली में यह चर्चा है कि मंदार क्षेत्र में उनका जन्म 400 वर्षों के
उपरान्त होगा और नाम संकीर्तन और वैष्णव प्रचार का बीड़ा फिर उठाएंगे.
सन १९४२ में एक दिन पंडित जड़बलाल झा
संकीर्तन के लिए उनको लेकर नीमा आए. बालक भोली बाबा ने उसदिन गेरुआ वस्त्र पहने थे.
रात में ‘श्रीराम-सीता दरबार’ का चित्रपट लगाकर कीर्तन शुरू हुआ. बाबा ने जब नाम
संकीर्तन शुरू किया तो लोग भावविभोर होकर उनके साथ नाचने लगे. लोगों ने गौर किया
तो बाबा रो-रोकर अपने इष्ट को पुकार रहे थे. वहां का ‘हरि बोल’ ‘बोल हरि’ में बदल
गया था. लोग हरि की आवाज़ सुनने को व्याकुल हो रहे थे. बाबा स्वयं कह रहे थे, “हे
हरि, कहाँ हो? एक आवाज़ लगा दो मुझे!”
बाबा के इस भाव की व्यापक चर्चा
हुई. लोग दर्शन कर उनके पांव छूने को उमड़ पड़े. इस बालक के भाव को लोगों ने ‘दैविक’
माना. उसी दिन से सुसुप्त पड़ चुके संकीर्तन की परम्परा समूचे मंदार क्षेत्र में फैलने
लगी. इसी क्रम में मैनेजर झा और अन्य लोगों ने मिलकर संकीर्तन समाज की नींव रखी. इसके
अध्यक्ष पंडित संतलाल मिश्र बनाए गए. वे बैजानी, भागलपुर के निवासी थे और बौंसी
में संस्कृत विद्यालय चलाते थे. श्री मिश्र ने ही 242 पृष्ठों वाले ‘मंदार मधुसूदन
महात्मय’ लिखा था जिसमें ४२ अध्याय थे. सदस्यों में गोविन्द घोष (लक्ष्मीपुर स्टेट
के दीवान), सीतावरण पंडा, चंद्रशेखर ठाकुर, नारायण झा (चन्नू बथान), मैनेजर झा (डुमरिया),
जड़बलाल झा (नीमा) प्रमुख थे. ‘मधुसूदन संकीर्तन समाज’ के नाम से एक मंडली तैयार की
गई जिसका नेतृत्व मैनेजर झा के हाथ में था. प्रत्येक पूर्णिमा को मधुसूदन मंदिर
में संकीर्तन का जिम्मा इन्हीं के हाथ में था. यह सब बाबा की प्रेरणा का ही
प्रतिफल था. इन सबमें उनकी उपस्थिति होती थी.
सन १९४३ में रात्रिकाल में मंदार
पर्वत के नरसिंह भगवान के सामने चार पहर का अखंड होता था. बाबा इसमें उपस्थित रहते
थे. बाबा की प्रेरणा से ही बगडुम्बा ड्योढ़ी के ज़मींदार मंदारेश्वर सिंह की अध्यक्षता
में बनारस में श्री रूपकला संकीर्तन मंडली में संकीर्तन हुआ. सन १९४६ में मंदार
पर्वत की परिक्रमा की शुरुआत उन्होंने की. यह तीन बार की जाती थी. 14 जनवरी को मकर
संक्रांति के अवसर पर परिक्रमा के साथ अखंड भी होता था. परिक्रमा और संकीर्तन की
यह परम्परा अब भी इनके शिष्यों ने जारी रखी है. माधुरी गाँव में बाबा के निर्देश
पर ही सन १९४८, १५ जनवरी से एक वर्ष का अखंड संकीर्तन शुरू किया गया. इस दौरान
बाबा वहां पूरे वर्ष भर विराजमान रहे.
मंदार मधुसूदन संकीर्तन समाज की ख्याति
तब दूर-दूर तक फ़ैल रही थी और कीर्तन के प्रेमी लोग बौंसी आकर कीर्तन गाकर जाते और
इस समाज को भी वहां आने का निमंत्रण देकर जाते थे. दूर प्रदेशों तक यह समाज बाबा
के प्रयास से जाना जाने लगा.
नाम संकीर्तन का यह बीज फूलकर
धर्मप्राण भवरों के जरिये दूर तक फैलता रहा और वैष्णव परम्परा को पल्लवित-पुष्पित
करता रहा.
बाबा के बारे में स्थानीय इतिहासकार
व मुरारका कॉलेज, सुल्तानगंज, भागलपुर के प्रिंसिपल डॉ. अभय कान्त चौधरी ने अपनी
पुस्तक ‘मंदार परिचय’ में लिखा है – ‘भगवन के प्रति एकाग्रता एवं तन्मयता इनमें
इतनी अधिक है कि कीर्तन करते-करते ये अपने आप को भूल जाते हैं, इन्हें कुछ भी
सुध-बुध नहीं रहती. इनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहती रहती है और बहुत देर तक यह
अवस्था बनी रहती है.’
लोग कहते हैं, अश्रुपूरित नयन और ‘हरि
बोल’ ही बाबा की पहचान थी. हरवक़्त वे मुस्कुराते और उनके नयन डबाडब रहते थे. ‘कल्याण
हो’ उनका वाच्य था और यह जाति, वर्ण, लिंग और सभी सम्प्रदायों के लिए था. वे विश्व
कल्याण के निमित्त ही थे.
अक्तूबर १९८१ को बनारस में ही उन्होंने
अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया. वे आजन्म ब्रह्मचारी रहे. धन संचय उनका उद्देश्य नहीं
था. “परहित सरिस धरम नहिं भाई...” की परंपरा के इस संत की
विचारधारा व्यक्तिपूजा की नहीं थी. राम और कृष्ण इनके लिए अवतार थे. अपना मंदिर और
मठ बनाना इन्हें पसंद नहीं था मगर संत की परम्परा को जीवंत रखने के उद्देश्य से
इनके शिष्यों ने इनकी एक प्रतिमा इनके आश्रम में लगाई है. यह आश्रम ठाकुर मधुसुदन
मंदिर के समीप ही है, जिसे देश-विदेशों से आनेवाले इनकी परम्परा के संत और शिष्य संकीर्तन
और प्रवचन से अक्सर परिपूर्ण करते रहते हैं. इनके शिष्यों में प्रवचनकर्ता श्री
लक्ष्मण शरण और सीताजी भी हैं जो कुछ वर्षों से बौंसी में ‘राम-सीता विवाह’ का
आयोजन कराती हैं.
मंदार मधुसूदन क्षेत्र से
उठा बाबा के ‘बोल हरि’ का जयघोष आज भी सर्वत्र सुनने को मिलते हैं. जहाँ भी लोग
कीर्तन के दौरान “हरि बोल हरि...” का जयकारा लगाते हैं बरबस उन्हें जाननेवालों के
मुंह से ये स्वर निकल जाते हैं कि महात्मा भोली बाबा अमर हैं.
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