समुद्र मंथन की बात कुछ अटपटी लगती है। कहां
मंदराचल या मंदार पर्वत और कहां समुद्र?
नक्शे
में देखें तो नजदीक में बंगाल की खाड़ी में समंदर बसता है, जो यहां से सैकड़ों मील दूर है। भू-विज्ञान
कहता है कि समुद्र की स्थिति जमीन की ऊंचाई-नीचाई के अनुसार बदलती रहती है। यह कोई
जादू नहीं। जहां पहले समुद्र लोटता था,
वहां
अभी सभ्यताएं जीवित हैं। और, कुछ जगहों में
समुद्र के नीचे भी विकसित सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं। हो सकता है कि मंदार की
भूमि पर पहले समुद्र लोटता हो।
बिहार के बांका जिले में घूमने की बात करें तो
मंदार क्षेत्र सबसे अव्वल रहेगा। अव्वल इस मामले में कि मंदार प्राकृतिक सुषमा से
तो भरा-पूरा है ही, इसके पौराणिक
महत्व इसके साक्ष्यों में चार चांद लगा देते हैं। पहाड़ी, पठारी और मैदानी रूप वाले बौंसी प्रखंड में इस
मंदार पर्वत का होना बांका जिला ही नहीं,
पूरे
बिहार सूबे के लिए गौरव की बात है।
साफ जलवायु, पानी और यहां के लोगों के भले व्यवहार के चलते
बौंसी को जो दर्जा मिला है उसे पुख्ता करने में धर्म और इतिहास की भूमिका कम नहीं
है। बात अगर हिंदू धर्म की करें तो जहां से सृष्टि निर्माण हुई है, यह वही जमीन है। धर्मशास्त्र बताते हैं कि
समुद्र मंथन यहीं से हुआ। बासुकी नाग को इस पर्वत के चारों ओर लपेटकर देवता और
दानवों ने अपनी-अपनी ताकतों से इसे खींचा और चौदह रत्न निकाले। धन और भाग्य की
देवी लक्ष्मी, अमृत और विष यहीं
से निकले। विष को लेने जब कोई तैयार नहीं हुए तो देवाधिदेव महादेव ने इसे पीया और
अपने गले में ही रोककर नीलकंठ कहलाए। मतलब कि धर्मशास्त्रों की मानें तो लक्ष्मी
यहीं पैदा हुईं और शिव का नीलकंठ रूप यहीं से ज्ञात हुआ।
समुद्र मंथन की बात कुछ
अटपटी लगती होगी। तिसमें भी, कहां मंदराचल या
मंदार पर्वत और कहां समुद्र! नक्शे में देखें तो इधर नजदीक में समंदर बंगाल की
खाड़ी में बसता है जो यहां से सैकड़ों मील दूर है। किंतु, समुद्र की स्थिति को जीवविज्ञान की स्थापित
मान्यता ‘फ्लोरा और फउना’ से अगर तुलना की जाए तो यह पता चलता है कि
समुद्र की स्थिति जमीन की ऊंचाई-नीचाई के अनुसार बदलती रहती है और यह कोई अजूबा
बात नहीं कि जहां पहले समुद्र हुआ करता था वहां अभी सभ्यताएं जीवित हैं और कुछ
जगहों में समुद्र के नीचे भी विकसित सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं। एडम्स ब्रिज
(श्रीराम सेना द्वारा निर्मित लंका पुल) और श्रीकृष्ण की द्वारिका सहित कई नगरों की
सभ्यताओं के अवशेष समुद्र की तलहटी में मिले हैं। यहां यह सोचा जा सकता है कि क्या
ये भवन, नगर और सभ्यताएं पानी के
नीचे ही बसाई गई थी! दिमागी कीड़े को थोड़ा और जिंदा करें तो पाएंगे कि जमीन के
जीवों का विकास जलीय जीवों के बाद हुआ है। मतलब कि आदमी से पुराने जीव कोरल रीफ व
मछलियां हैं और ये सभी पानी में ही पैदा हुईं। कुछ वर्षों पूर्व आई सुनामी ने
स्थापित वैज्ञानिक सिद्धांत को सत्यापित करते हुए यह बता दिया कि समुद्र जमीन की
तरफ कैसे बढ़ता है और अपनी जमीन; जहां वह पहले
लोटता था उसे कैसे छोड़ता है। इससे यह साबित होता है कि पूरी पृथ्वी की सतह पर
समुद्र कहीं भी फैल सकता है। हो सकता है कि मंदार की भूमि पर भी ऐसा कुछ हुआ।
बात अगर जैन धर्म की करें
तो इनके बारहवें तीर्थांकर वासुपूज्यजी को इसी पर्वत पर निर्वाण मिला। ये चंपा
(भागलपुर) के राजघराने से थे। जैनियों के लिए यह क्षेत्र काफी महत्व रखता है। वजह
यही है कि हर साल जैन धर्मावलंबी हजारों की संख्या में यहां वासुपूज्य की
निर्वाणस्थली को देखने आते हैं।
यातायात
मंदार क्षेत्र पटना-हावड़ा रेलमार्ग की दोनों ब्रॉड गेज़ लाइनें क्रमशः जसीडिह
और भागलपुर से जुड़ी हुई है। जसीडिह-भागलपुर पहुंच पथ से सड़क मार्ग के जरिए 81 किलोमीटर पर बौंसी या महाराणा हाट उतरकर
मंदार पहुंचा जा सकता है। अगर आप भागलपुर से आना चाहते हैं तो 50वें किलोमीटर पर बौंसी है। यहां देखने और
घूमने के लिए कई जगह हैं। इनमें चांदन डेम भी काफी सुदर्शन और सुरम्य है। बौंसी से
मंदार की दूरी 5 किलोमीटर और
चांदन डेम की दूरी 21 किलोमीटर है।
दोनों तरफ जाने के लिए पहुंच पथ फिलहाल दुरूस्त हैं।
दर्शनीय स्थल
मंदार :
लगभग 700 मीटर ऊंचे इस पर्वत का
मुख्य हिस्सा एक ही पत्थर से बना है। कुछ लोगों का कहना है कि मदार यानी आक के
फूलों के बहुतायत में मिलने की वजह से इस पर्वत का नाम मंदार पड़ा।
पापहरिणी तलाब :
मंदार पर्वत की तलहटी में यह तलाब स्थित है।
लक्ष्मी-नारायण मंदिर :
पापहरनी तलाब के बीचोंबीच यह खूबसूरत मंदिर कुछ वर्षों पहले बनाया गया है।
सफा धर्म मंदिर :
पापहरिणी के तट पर आदिवासियों व गैर-आदिवासियों का यह मंदिर स्थापित है जिसे
गुरु चंदरदास ने बनवाया है। दरअसल इस मत को स्थापित करनेवाले बाबा चंदरदास ही थे।
सर्प चिह्न :
मान्यता है कि समुद्र मंथन के वक्त बासुकीनाग की पेटी के घर्षण से यह चिह्न
बना है।
मंदिरों के भग्नावशेष :
मुगलकाल में कालापहाड़ के आतंक का गवाह यहां के मंदिरों के भग्नावशेष हैं।
सीता कुंड :
पर्वत के ऊपर यह तलाब है जिसके पानी की सतह तलाब के भित्तिचित्र छूते हैं।
कहते हैं कि माता सीता ने यहां स्नान कर लव-कुश जैसे योद्धाओं की माता होने का
गौरव पाया।
गौशाला :
भगवान नरसिंह को रोजाना खीर भोग लगाने हेतु यहां गाएं पाली जाती हैं। ये गाएं
श्रद्धालुओं द्वारा दिए गए दान से प्राप्त हैं जिसकी देखभाल कुछ साधु करते हैं।
शंख कुंड :
सीता कुंड व गौशाला के समीप यह छोटा-सा शंक्वाकार कुंड है जिसकी तली में 9 मन का पत्थर का वामहस्त का शंख है।
नरसिंह गुफा :
8x12x3 फीट ऊंचाई वाली
इस अंधेरी गुफा में भगवान नरसिंह की प्रतिमा है जिनकी पूजा रोजाना होती है।
राक्षस मधु के विशाल सिर का भित्तिचित्र :
वास्तुशिल्प के दृष्टिकोण से यह भित्तिचित्र मंदार पर्वत पर उपस्थित सभी
मूर्तियों और भित्तिचित्रों में अव्वल है जिसकी तारीफ कई विदेशी विद्वानों ने की
है।
पाताल कुंड :
मधु के विशाल सिर के पास ही पाताल कुंड है। दरअसल यह एक गुफा है जिसमें
सालोंभर पानी रहता है। इस पानी में कई तरह की वनस्पतियां पाई जाती है जिसे पादप
विज्ञानी दुर्लभ प्रजाति के शैवाल मानते हैं।
निर्मल जल कुआं :
इस कुआं का पानी काफी मीठा है जिसकी पौष्टिकता प्रमाणित और सत्यापित है।
काशी विश्वनाथ मंदिर :
पर्वत के ऊपर यह शिवजी का एक मंदिर है। कुछ वर्षों से यहां स्थानीय लोगों के
सहयोग से शिव बारात निकाली जाती है।
राम झरोखा :
पर्वत के शिखर के थोड़ा नीचे झरोखानुमा एक कमरा है जहां से नीचे और आसपास के
इलाके का अवलोकन किया जा सकता है।
जैन मंदिर (हिल टॉप) :
यह मंदिर 50-60 वर्षों से
जैनियों के कब्जे में है जिसे स्थानीय ज़मींदारों ने चंद रुपयों के लालच में बेच
दिए। आज भी यह विवादित स्थल है। कई अंग्रेज इतिहासकार और सर्वेयरों ने लिखा है कि
यह मंदिर लॉर्ड विष्णु का है।
मंदार विद्यापीठ :
पर्वत की तलहटी से दक्षिण-पूर्व में मंदार विद्यापीठ है जिसे इस क्षेत्र के
गरीब-महरूम लोगों को शिक्षा देने के लिए दक्षिण भारतीय विद्वान आनंद शंकर माधवन ने
अपने गुरु व पूर्व राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन से आशीर्वाद लेकर खोला था। अब यहां
मंदार विद्यापीठ के तहत एक +2 तक एक स्कूल और
शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय चलता है।
चैतन्य पीठ :
‘नाम संकीर्तन’ की बंगाली परंपरा के संचालक चैतन्य महाप्रभु
सन 1905 में यहां आए थे। उसी समय
इस पीठ की स्थापना की गई थी जो मंदार विद्यापीठ और पर्वत के बीच में है।
नाथ मंदिर :
प्राचीन काल में नाथ संप्रदाय के नगा साधु यहां रहकर साधना किया करते थे। यह
ग्रेनाइटों के स्लैब से बना घर था,
जो
अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में विद्यमान है।
लखदीपा मंदिर :
इन मंदिरों में कभी दीवाली के अवसर पर लाखों दीये जलाए जाते थे। इस मंदिर का
अवशेष झाड़ियों के बीच मौजूद है। यह मंदिर नाथ मंदिर के समीप ही है।
राजा-रानी पोखर :
इस पोखर के बीच में एक लाट होने के कारण इसे लाट वाला पोखर भी कहते हैं।
सागर मंथन स्टेच्यू :
कुछ वर्षों पूर्व इस स्टेच्यू को शांति निकेतन (बोलपुर, पश्चिम बंगाल) के शिल्पी नंद कुमार मिश्र ने
बनाया। यह पापहरिणी के ऊपर एक बड़े पत्थर के टीले पर सफा मंदिर के पास है।
लाल मंदिर :
मंदार-बौंसी पथ पर पापहरिणी के समीप लाल मंदिर है जिसे बिड़ला ने बनवाया था।
जैन मंदिर (बारामती) :
भगवान बासुपूज्य ने यहां साधना की थी। यह मंदिर मंदार-बौंसी पथ पर है।
मधुसूदन मंदिर :
यह प्राचीन मंदिर बौंसी में स्थित है। जनवरी माह की 14वीं तारीख से यहां वृहद मेले का आयोजन होता है
जो एक महीने तक चलता है। यह मंदिर उड़िया और मुग़ल शैली का मिश्रित रूप है।
गरूड़ रथ :
भगवान मधुसूदन को रथयात्रा के वक्त बौंसी बाजार तक इसी रथ से लाया जाता है। यह
काफी खूबसूरत है जो स्थानीय दाताओं की सहायता से निर्मित है।
फगडोल :
उड़िया शैली में निर्मित यह संरचना मुग़ल स्थापत्य कला की मेहराब की तरह ही है
जहां साल में एकबार होली के वक्त भगवान मधुसूदन की प्रतिमा को रखकर गुलाल चढ़ाया
जाता है। इस वक्त यहां काफी भीड़ होती है जिसमें नगरवासी हिस्सा लेते हैं।
प्राचीन शिव मंदिर :
मधुसूदन मंदिर के पास स्थित यह शिव मंदिर काफी पुराना है।
संत भोली बाबा आश्रम :
संत परंपरा के निर्वाहक भोली बाबा का यह आश्रम उनके शिष्यों के लिए तीर्थ है।
बाबा स्थानीय निवासी थे और नाम संकीर्तन के स्वयं प्रचारक थे और प्रचार करने का
उपदेश देते थे। यह आश्रम मधुसूदन मंदिर के करीब है।
शिव मंदिर :
यह रेलवे स्टेशन के समीप है जिसे एक धर्मप्राण स्थानीय मारवाड़ी परिवार ने
पूजा-अर्चना के लिए बनवाया था।
जैन मंदिर (बौंसी) :
यह जैन मंदिर दक्षिण भारत की स्थापत्य कला से ओतप्रोत मालूम होता है। यह रेलवे
स्टेशन के नजदीक है।
काली मंदिर :
बौंसी थाना के गेट के पास यह काली मंदिर है जहां रोज शाम को भक्तों की भीड़
रहती है।
दुर्गा स्थान :
वैष्णवी रूप की पूजा इस इलाके में सिर्फ यहीं होती है। दुर्गापूजा के समय यहां
लोगों की काफी भीड़ रहती है। प्रत्येक बुधवार व शनिवार को यहां हाट लगती है।
गुरुधाम :
योगी श्री श्यामाचरण लाहिड़ी के शिष्य श्री भूपेन्द्र नाथ सान्याल ने इस जगह की
स्थापना योगपीठ के तौर पर की। बौंसी-भागलपुर रोड पर बौंसी से एक किलोमीटर की दूरी
पर यह जगह है। हर साल बसंत पंचमी के अवसर पर यहां उनके परंपरागत शिष्यों की भीड़
रहती है।
गुरुकुल :
श्यामाचरण पीठ से संचालित इस गुरुकुल की स्थापना वैदिक ज्ञान और
रिसर्च के लिए की गई है। यह संस्था गुरुधाम के अहाते में ही निर्मित व वित्तपोषित
है।
ठहरने के लिए
रेलवे गेस्ट हाउस :
बौंसी में मंदारहिल रेलवे स्टेशन के परिसर में 12 कमरों वाले रेलवे गेस्ट हाउस का निर्माण मालदा रेल प्रमंडल
ने सन् 1998 में कराया है। चूंकि इस
रेल लाइन को हावड़ा मेन लाइन के ब्रॉड गेज से जोड़ने की परियोजना पर काम चल रहा है
इसलिए अफसरों के यहां ठहरने के लिए इसका निर्माण कराया गया है। किंतु, आम लोग भी रेलवे द्वारा निर्धारित राशि को
जमाकर यहां कमरा किराए पर ले सकते हैं।
आईबी, आईबी-वन विभाग (मंदार), आईबी-सिंचाई, छापोलिका धर्मशाला (बौंसी), जैन धर्मशाला और कई होटल भी हैं।
कब आएं
जनवरी-फरवरी
जनवरी, 13 को मंदार में सफा
धर्मावलंबियों का व राष्ट्रीय मेला लगता है जिसमें कंपकंपाती ठंड में इस धर्म के
अनुयायी साधना करते हैं। इस अवसर पर प्रशासन द्वारा जलाने के लिए लकड़ी व डॉक्टर की
सुविधा भी रहती है।
जुलाई-अगस्त
मौसम साफ रहने की वजह से
फोटोग्राफी करनेवालों के लिए यह क्षेत्र पसंदीदा है। साथ ही यहां के मुख्यमार्ग पर
श्रावण महीने में बासुकीनाथ जानेवाले कांवरियों को देखकर आनंद उठाया जा सकता है।
साथ ही, उनकी सेवा करके पुण्य
अर्जित की जा सकती है। वनस्पतियों का अध्ययन करनेवाले और इसे संचय करनेवालों के
लिए यही समय सबसे अच्छा होता है। अतएव, इस मौसम में आपको वनस्पतियों के जानकारों से आपकी
मुलाकात हो सकती है। लेकिन, सबसे बड़ी बात है कि बारिश की वजह से पत्थरों पर उग आई काई/शैवालों की वजह से
आपको तकलीफ उठानी पड़ सकती है। इस वक्त आपको संभल कर चलना होगा।
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