एक समय की बात है। अंग प्रदेश के नरेश हुआ करते थे राजा रोमपाद। प्रतापी नरेश थे ये। उनके शासन काल में अंग में समृद्धि थी। कोई युद्ध नहीं था। अंग से सटी पश्चिमी सीमा मगध से लगती थी जहां रोमपाद के श्वसुर सुकौशल राजा हुआ करते थे। तब अयोध्या में इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ आसीन थे जो राजा रोमपाद की पत्नी वार्षिणी की छोटी बहन कौसल्या के पति थे।
अंग नरेश रोमपाद गंगा के किनारे अपने सभासदों के साथ संध्याकाल में बैठे थे कि एक नागरिक ने अपनी विपदा सुनाई कि उनके फसल को जंगली हाथियों ने पूर्णतः रौंद दिया। दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसा ही है। अब किसानों के पास भोजन की भीषण समस्या उत्पन्न हो गई है। इसकी पुष्टि सभासदों ने भी की और चिंता भी प्रकट की।
रोमपाद ने सभासदों से इसका निदान तुरंत ढूँढने को कहा।
तभी वहाँ महर्षि गौतम, भृगु, नारद, मृग्कर्मन, अग्निवैश्य, अरिमेद, काप्य और मातंगाचार्य एक साथ आए और उन्होंने उपाय सुझाया कि इन हाथियों को पकड़कर इनसे काम लिया जाए।
राजा रोमपाद ने अपने कुछ दुस्साहसी सेवकों को इस महत्कार्य के लिए तुरत तैयार होकर रवाना होने को कहा।
लगभग एक पक्ष बीतने को था और अंग प्रदेश के सैकड़ों हाथी पकड़ लिए गए।
अंग के गहन जंगल के हाथियों वाले क्षेत्र में ऋषि पालकाप्य का निवास था। वे अपनी दिनचर्या का अधिक समय इन हाथियों के साथ बिताते थे। एकाएक हाथियों की संख्या कम होते देखकर वे चिंतित हो गए। उनके शिष्यों ने बताया कि इन हाथियों को पकड़वाकर अंग नरेश काम ले रहे हैं और इनको गंभीर यातना दी जा रही है। वे क्रोध से नीले पड़ गए और तुरत ही उन्होंने राजनिवास की दिशा में कूच किया।
सुबह की पहली किरण फूटते ही वे राजभवन के द्वार पर थे। वहाँ के द्वारपालों से उन्होंने राजा रोमपाद से तुरत मिलने की इच्छा प्रकट की। द्वारपालों को पहले से आदेश था कि किसी ऋषि-मुनि को द्वार पर रोका नहीं जाए। उन्हें सीधा राजभवन के अतिथिगृह में बैठाकर महाराज को तुरत ही सूचना दी जाए। द्वारपाल ने ऐसा ही किया।
कुछ ही क्षणों में महर्षि पालकाप्य के सामने आतिथ्य भाव से पाँव पखारने के लिए राजा रोमपाद उपस्थित थे। महर्षि बहुत ही क्रोध में थे लेकिन महाराज के आतिथ्य और सरल व्यवहार ने उनका उद्वेग कुछ समय के लिए शांत कर दिया। महाराज को महर्षि के दुख और उनकी उग्रता का भान हो गया था। उनको महर्षि के हस्ति (हाथी) प्रेम के बारे में पहले से पता था।
आतिथ्य के उपरांत महर्षि को दरबार में सभासदों के समक्ष उच्च आसन पर विराजमान कराने के उपरांत महाराज रोमपाद ने खड़े होकर हाथ जोड़ते हुए आने का प्रयोजन पूछा। तब उस दरबार के सभी सभासद भी हाथ जोड़कर महर्षि की दिशा में उन्मुख होकर खड़े थे।
महर्षि ने क्रोध के वेग से तप्त होकर अंग नरेश से कहना आरंभ किया - "हाथियों पर अन्याय का अधिकार आपको किसने दिया? आप जैसे महाप्रतापी का यह दुस्साहस क्या क्षम्य है? क्या इन विवश बच्चों पर दया नहीं आई आपको?" महर्षि के प्रश्नों का कोई भी उत्तर अंग नरेश के पास नहीं था।
सभा के सन्नाटे को फिर महर्षि ने तोड़ा और कहा कि ये सम्पूर्ण क्षेत्र में कहीं भी गमनागमन कर सकते हैं। इन्हें रोकने, बांधने और इन पर अन्याय का अधिकार किसी को नहीं है।
रूंधे गले से हाथ जोड़े महाराज ने महर्षि से इस अपराध के लिए क्षमा मांगा और घायल हाथियों के उपचार के लिए उपाय बताने का निवेदन किया। महाराज ने वचन दिया कि अब और हाथी नहीं पकड़े जाएँगे। उन्होने यह भी कहा कि सभी हाथी पकड़े जाने के समय से घायल हैं। अगर इन घायलों को वन में ले जाकर छोड़ दिया जाए तो ये मर जाएँगे।
अंग नरेश रोमपाद की बात सुनकर महर्षि को अपने हाथियों पर दया आई। महर्षि ने यहीं नरेश को 'हस्ति शास्त्र' और 'हस्त्यायुर्वेद' का ज्ञान दिया। आगे चलकर यही शाखा आयुर्वेद से जुड़ गई। कहा गया है कि महर्षि पालकाप्य ने अंग नरेश के आग्रह पर उनके राजभवन में रहकर महाराज के साथ घायल हाथियों की सेवा की। इन हाथियों के ठीक हो जाने पर स्वयं महाराज इन्हें जंगल में छोड़ने गए मगर ये हाथी महाराज के साथ फिर से आ गए। ये हाथी महाराज के अतिप्रिय थे। कहते हैं कि रोमपाद की उपस्थिति में ही ये हाथी भोजन ग्रहण करते थे। जब अपने साढ़ू राजा दशरथ की पुत्रेष्ठि यज्ञ में रोमपाद गए थे तब सभी हाथी इनके साथ ही गए थे।
(मातंग लीला)
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