राजराजा चोल ने बंगदेशम पर सन 1021-22 में चढ़ाई कर दी तब यहाँ पालवंश के राजा महिपाल का शासन था और असम (प्रागज्योतिषपुर में) ब्रह्मपाल का।
तिब्बती सूत्र बताते हैं कि इस दौरान विक्रमशिला महाविहार (भागलपुर के कहलगांव स्थित) के आचार्य अतीश दीपांकर सन 1013 से ही 12 वर्षों तक वर्तमान इंडोनेशिया के श्रीविजय साम्राज्य में थे।
तभी राजराजा ने अपने साम्राज्य में बढ़ोत्तरी करते हुए इंडोनेशिया के श्रीविजय पर भी अधिकार कर लिया। इस दौरान दीपांकर के बंगाल प्रांत में आने और फिर यहाँ से तिब्बत जाने के क्रम का विवरण इनके बारे में पुस्तक लिखने वाले किसी लेखक ने विस्तार से नहीं लिखा है। कहा इतना गया है कि वे आजन्म फिर तिब्बत में ही रह गए।
गौरतलब है कि श्रीविजय का संबंध अंगदेशम (जो उस वक्त बंगदेशम का हिस्सा था) से अति प्राचीन था जो दीपांकर के वक़्त भी कायम था। तब श्रीविजय मिलिट्री प्रभुत्व वाला प्रदेश था जहां बौद्धधर्म पल्लवित-पुष्पित था।
राजराजा के दक्षिणी गंगाक्षेत्र (बंगदेशम) के विजय के समय आचार्य दीपांकर की उम्र 41-42 की थी। शायद बंगाल के तत्कालीन शासक महिपाल की नाकामी की वजह से उन्हें नाराजगी थी। लेकिन इस संदर्भ में तिब्बती स्रोत पूर्णतः लामा तारानाथ (17वीं शताब्दी) की कपोल कल्पना के भरोसे उड़ान भरता है। आज के विद्वान भी तारानाथ के अलावे राहुल सांकृत्यायन के सूत्रों के भरोसे टिके हुए हैं जो स्वयं भी तारानाथ पर आधारित हैं।
सवाल पैदा होता है कि दीपांकर ने उपरोक्त राजनीतिक परिदृश्य के बारे में तिब्बत में कुछ कहा तो होगा? अगर कहा तो क्या कहा और नहीं कहा तो क्यों नहीं कहा, इसपर खोज की जरूरत है।
तिब्बत से प्राचीन पुस्तकों को खच्चर पर लादकर राहुल सांकृत्यायन पटना ले आए थे। उसमें कुछ पेंटिंग्स भी थी जिसे पटना के पुराने संग्रहालय में रखा गया है। वहाँ से लाई गई किताबें उन्होंने सिन्हा और खुदाबख्श खां लाइब्रेरी में दे दिए लेकिन रखरखाव में अनदेखी के कारण बर्बाद हो गई। ये किताबें मोर और भोट लिपि/भाषाओं में थीं।
अभी भी कंदम स्कूल में प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध हैं जो उपरोक्त राजनीतिक परिदृश्य का भेद खोल सकते हैं। आखिर, अंग देश के इतिहास के लिए यह संभव किससे होगा?
तिब्बती सूत्र बताते हैं कि इस दौरान विक्रमशिला महाविहार (भागलपुर के कहलगांव स्थित) के आचार्य अतीश दीपांकर सन 1013 से ही 12 वर्षों तक वर्तमान इंडोनेशिया के श्रीविजय साम्राज्य में थे।
तभी राजराजा ने अपने साम्राज्य में बढ़ोत्तरी करते हुए इंडोनेशिया के श्रीविजय पर भी अधिकार कर लिया। इस दौरान दीपांकर के बंगाल प्रांत में आने और फिर यहाँ से तिब्बत जाने के क्रम का विवरण इनके बारे में पुस्तक लिखने वाले किसी लेखक ने विस्तार से नहीं लिखा है। कहा इतना गया है कि वे आजन्म फिर तिब्बत में ही रह गए।
गौरतलब है कि श्रीविजय का संबंध अंगदेशम (जो उस वक्त बंगदेशम का हिस्सा था) से अति प्राचीन था जो दीपांकर के वक़्त भी कायम था। तब श्रीविजय मिलिट्री प्रभुत्व वाला प्रदेश था जहां बौद्धधर्म पल्लवित-पुष्पित था।
राजराजा के दक्षिणी गंगाक्षेत्र (बंगदेशम) के विजय के समय आचार्य दीपांकर की उम्र 41-42 की थी। शायद बंगाल के तत्कालीन शासक महिपाल की नाकामी की वजह से उन्हें नाराजगी थी। लेकिन इस संदर्भ में तिब्बती स्रोत पूर्णतः लामा तारानाथ (17वीं शताब्दी) की कपोल कल्पना के भरोसे उड़ान भरता है। आज के विद्वान भी तारानाथ के अलावे राहुल सांकृत्यायन के सूत्रों के भरोसे टिके हुए हैं जो स्वयं भी तारानाथ पर आधारित हैं।
सवाल पैदा होता है कि दीपांकर ने उपरोक्त राजनीतिक परिदृश्य के बारे में तिब्बत में कुछ कहा तो होगा? अगर कहा तो क्या कहा और नहीं कहा तो क्यों नहीं कहा, इसपर खोज की जरूरत है।
तिब्बत से प्राचीन पुस्तकों को खच्चर पर लादकर राहुल सांकृत्यायन पटना ले आए थे। उसमें कुछ पेंटिंग्स भी थी जिसे पटना के पुराने संग्रहालय में रखा गया है। वहाँ से लाई गई किताबें उन्होंने सिन्हा और खुदाबख्श खां लाइब्रेरी में दे दिए लेकिन रखरखाव में अनदेखी के कारण बर्बाद हो गई। ये किताबें मोर और भोट लिपि/भाषाओं में थीं।
अभी भी कंदम स्कूल में प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध हैं जो उपरोक्त राजनीतिक परिदृश्य का भेद खोल सकते हैं। आखिर, अंग देश के इतिहास के लिए यह संभव किससे होगा?
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वृहदेश्वर मंदिर के निर्माणकर्ता डाकिनी के भक्त
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11वीं सदी के प्रतापी सम्राट राजराजा चोल जिन्होंने गंगा के दक्षिणी ओर के भूभाग पर प्रभुत्व स्थापित कर 'गंगईकोंड चोल' की उपाधि धारण की थी वे शिव भक्त के तौर पर जाने जाते हैं। सच यह भी है कि वे डाकिनी के साधक थे। विदित हो कि डाकिनी को देवि काली की एक उग्र शक्ति-रूप में मान्यता प्राप्त है। यह भी माना जाता है कि प्रकृति (पृथ्वी) की ऋणात्मक ऊर्जा से उत्पन्न एक स्थायी गुण ही डाकिनी है जो निश्चित आकृति में दिखाई देती है। इनकी श्मसान साधना का विधान है।
मलय (Malaysia) के इतिहास में कहा गया है कि इन्हीं शक्ति के आवाहन के समय वे अपना खड्ग यानी तलवार पूजन करते थे फिर युद्ध की समाप्ति के उपरांत ही म्यान में रखते थे। श्रीलंका, मालदीव और पूर्व एशिया के कुछ देश इनके साम्राज्य में शामिल थे।
इनकी तलवार 20 किलो से अधिक वजन की थी जिसका नाम था चोरा मन डाकिनी ! कुछ लोग इसे 'चोला मंदाकिनी' भी कहते हैं। यह तलवार आज भी मलेशिया में सुरक्षित है। इसके बारे में कहा गया है - The Magical Object guarded by a Female Spirit.
राजराजा चोल के जिस साम्राज्य को 'बंग साम्राज्य' के भूभाग और गंगा के दक्षिणी इलाके से जोड़कर आजतक इतिहास कहा जाता है उसमें यह क्षेत्र शामिल होने के प्रमाण मिलते हैं।मंदार के नीचे के पत्थर के एक भवन को 'चोल साम्राज्य का निवास' 19वीं सदी से कहा जाता रहा है। बहुतायत में यहाँ शिवलिंग का होना तथा श्मसान में दक्षिणमुखी शिवलिंग होना भी कुछ संबंध परिलक्षित करते हैं।
अहं को त्यागकर, इतिहास को एक नए सिरे से देखे जाने की जरूरत है।