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Friday, April 17, 2020

चोल (गंगईकोंड) से संबन्धित शाश्वत स्थानीय प्रश्न

राजराजा चोल ने बंगदेशम पर सन 1021-22 में चढ़ाई कर दी तब यहाँ पालवंश के राजा महिपाल का शासन था और असम (प्रागज्योतिषपुर में) ब्रह्मपाल का।
तिब्बती सूत्र बताते हैं कि इस दौरान विक्रमशिला महाविहार (भागलपुर के कहलगांव स्थित) के आचार्य अतीश दीपांकर सन 1013 से ही 12 वर्षों तक वर्तमान इंडोनेशिया के श्रीविजय साम्राज्य में थे।
तभी राजराजा ने अपने साम्राज्य में बढ़ोत्तरी करते हुए इंडोनेशिया के श्रीविजय पर भी अधिकार कर लिया। इस दौरान दीपांकर के बंगाल प्रांत में आने और फिर यहाँ से तिब्बत जाने के क्रम का विवरण इनके बारे में पुस्तक लिखने वाले किसी लेखक ने विस्तार से नहीं लिखा है। कहा इतना गया है कि वे आजन्म फिर तिब्बत में ही रह गए।
गौरतलब है कि श्रीविजय का संबंध अंगदेशम (जो उस वक्त बंगदेशम का हिस्सा था) से अति प्राचीन था जो दीपांकर के वक़्त भी कायम था। तब श्रीविजय मिलिट्री प्रभुत्व वाला प्रदेश था जहां बौद्धधर्म पल्लवित-पुष्पित था।
राजराजा के दक्षिणी गंगाक्षेत्र (बंगदेशम) के विजय के समय आचार्य दीपांकर की उम्र 41-42 की थी। शायद बंगाल के तत्कालीन शासक महिपाल की नाकामी की वजह से उन्हें नाराजगी थी। लेकिन इस संदर्भ में तिब्बती स्रोत पूर्णतः लामा तारानाथ (17वीं शताब्दी) की कपोल कल्पना के भरोसे उड़ान भरता है। आज के विद्वान भी तारानाथ के अलावे राहुल सांकृत्यायन के सूत्रों के भरोसे टिके हुए हैं जो स्वयं भी तारानाथ पर आधारित हैं।
सवाल पैदा होता है कि दीपांकर ने उपरोक्त राजनीतिक परिदृश्य के बारे में तिब्बत में कुछ कहा तो होगा? अगर कहा तो क्या कहा और नहीं कहा तो क्यों नहीं कहा, इसपर खोज की जरूरत है।
तिब्बत से प्राचीन पुस्तकों को खच्चर पर लादकर राहुल सांकृत्यायन पटना ले आए थे। उसमें कुछ पेंटिंग्स भी थी जिसे पटना के पुराने संग्रहालय में रखा गया है। वहाँ से लाई गई किताबें उन्होंने सिन्हा और खुदाबख्श खां लाइब्रेरी में दे दिए लेकिन रखरखाव में अनदेखी के कारण बर्बाद हो गई। ये किताबें मोर और भोट लिपि/भाषाओं में थीं।
अभी भी कंदम स्कूल में प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध हैं जो उपरोक्त राजनीतिक परिदृश्य का भेद खोल सकते हैं। आखिर, अंग देश के इतिहास के लिए यह संभव किससे होगा?

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वृहदेश्वर मंदिर के निर्माणकर्ता डाकिनी के भक्त
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11वीं सदी के प्रतापी सम्राट राजराजा चोल जिन्होंने गंगा के दक्षिणी ओर के भूभाग पर प्रभुत्व स्थापित कर 'गंगईकोंड चोल' की उपाधि धारण की थी वे शिव भक्त के तौर पर जाने जाते हैं। सच यह भी है कि वे डाकिनी के साधक थे। विदित हो कि डाकिनी को देवि काली की एक उग्र शक्ति-रूप में मान्यता प्राप्त है। यह भी माना जाता है कि प्रकृति (पृथ्वी) की ऋणात्मक ऊर्जा से उत्पन्न एक स्थायी गुण ही डाकिनी है जो निश्चित आकृति में दिखाई देती है। इनकी श्मसान साधना का विधान है।
मलय (Malaysia) के इतिहास में कहा गया है कि इन्हीं शक्ति के आवाहन के समय वे अपना खड्ग यानी तलवार पूजन करते थे फिर युद्ध की समाप्ति के उपरांत ही म्यान में रखते थे। श्रीलंका, मालदीव और पूर्व एशिया के कुछ देश इनके साम्राज्य में शामिल थे।
इनकी तलवार 20 किलो से अधिक वजन की थी जिसका नाम था चोरा मन डाकिनी ! कुछ लोग इसे 'चोला मंदाकिनी' भी कहते हैं। यह तलवार आज भी मलेशिया में सुरक्षित है। इसके बारे में कहा गया है - The Magical Object guarded by a Female Spirit.
राजराजा चोल के जिस साम्राज्य को 'बंग साम्राज्य' के भूभाग और गंगा के दक्षिणी इलाके से जोड़कर आजतक इतिहास कहा जाता है उसमें यह क्षेत्र शामिल होने के प्रमाण मिलते हैं
मंदार के नीचे के पत्थर के एक भवन को 'चोल साम्राज्य का निवास' 19वीं सदी से कहा जाता रहा है। बहुतायत में यहाँ शिवलिंग का होना तथा श्मसान में दक्षिणमुखी शिवलिंग होना भी कुछ संबंध परिलक्षित करते हैं।
अहं को त्यागकर, इतिहास को एक नए सिरे से देखे जाने की जरूरत है।


Chloroquine के निर्माता का भागलपुर कनेक्शन

HydroxyChloroquine Sulphate के साथ जुड़ा है एक राष्ट्रवादी भारतीय वैज्ञानिक का नाम। इन्होंने क्लोरोक्वीन फॉस्फेट बनाया था जो मलेरिया की दवा के तौर पर प्रयोग किया जाता था। तब सम्पूर्ण भारत में मलेरिया से बहुत लोग मरते थे। भागलपुर में गंगा के उत्तरी भाग में इससे मरनेवालों की संख्या ज्यादा ही थी।
भारत में इसे सबसे पहले बनाने वाले बंगाल केमिकल्स के जनक थे आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय। इन्होंने हिन्दू रसायन का इतिहास' लिखा जिसका मूल रूप A history of Hindu chemistry from the earliest times to the middle of the sixteenth century, A.D है। 'द ग्रीक एल्केमी' पुस्तक के लेखक बर्थेलो ने इनकी प्रशंसा मुक्तकंठ से की।
बंगाल केमिकल्स ने पहली बार इस दवा का निर्माण सन 1934 में किया था। यह देश में क्लोरोक्वीन दवाई बनाने की सबसे बड़ी कंपनी है जिसका पूरा नाम है - बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड। इसकी स्थापना आज से 119 साल पहले आचार्य राय ने की थी। पिछले काफी समय से बंगाल केमिकल्स ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का उत्पादन नहीं किया है।बंगाल केमिकल्स दरअसल क्लोरोक्वीन फॉस्फेट बनाती रही है, जिसका उपयोग मलेरिया की दवाई के रूप में होता रहा है। क्लोरोक्वीन फॉस्फेट का भी वही प्रभाव है जो हाल ही में चर्चा में आयी हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन सल्फेट का। लेकिन बंगाल केमिकल्स ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन सल्फेट उत्पादन पिछले कुछ सालों से बंद कर दिया है। उल्लेखनीय है कि बंगाल केमिकल्स इस दवाई को बनाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की एकमात्र कंपनी है। नए नियमों के अनुसार इस दवाई को बनाने के लिए अब कंपनी को फिर से लायसेंस लेना होगा।
भागलपुर कॉलेज में केमिस्ट्री (रसायन शास्त्र) के लेक्चरर के तौर पर सन 1908 में योगदान देने वाले जोगेश चंद्र घोष इनके प्रिय शिष्यों में से एक थे। इनके बुलावे पर आचार्य 1909 में भागलपुर आए थे। तब वे प्रेसीडेंसी कालेज के रसायन विभाग में बतौर सहायक प्रवक्ता कार्यरत थे। तब वे यहाँ के ब्रह्म समाज से जुड़े लोगों से भी मिले थे। इनसे पहले आचार्य पीसी राय के पिता 'ब्रह्म समाज' के कार्यक्रम में हिस्सा लेने भागलपुर आए थे। आचार्य पीसी राय आजन्म कुँवारे रहे।
इन्होंने भागलपुर में कविराजों (आयुर्वेद के प्रैक्टिशनरों) को देखकर शिष्य जोगेन्द्र को कहा था कि आयुर्वेद का क्षेत्र व्यापक है और आप भारतीयों के कल्याण के लिए इस तरफ ध्यान दीजिये। इस बात का इतना व्यापक असर हुआ कि सेवामुक्त होने के बाद इन्होंने साधना औषधालय की स्थापना की। ढाका से आरंभ हुआ यह औषधालय पहले बंगाल के विभिन्न स्थानों में खुला। फिर भागलपुर और मुंगेर में भी। फिर चीन, उत्तरी अमरीका, अफ्रीका में। सनद रहे कि ये वही जोगेश चंद्र थे जिनकी हत्या पाकिस्तानी सैनिकों ने ऑपरेशन सर्चलाइट के दरम्यान 1971 में कर दी थी।
मातृभूमि, मातृभाषा और अपने आर्ष मनीषियों की महान परंपरा का पालन करनेवाले वैज्ञानिक डॉ. प्रफुल्ल चंद्र राय को आज मानवता की रक्षा करने के लिए अखिल विश्व याद करेगा।