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Sunday, August 5, 2018

आदिकाल से परित्यक्त रहा है ‘अंग महाजनपद’


-         उदय शंकर झा ‘चंचल’

महाभारत कालीन अंग महाजनपद को हज़ारों वर्षों से परित्यक्त रखने की साज़िश से इंकार नहीं किया जा सकता है। विदित हो कि अब वृहत विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण और पद्म पुराण में जिस मंदार पर्वत की महिमा का गुणगान किया गया, उसे धर्मग्रन्थ छापनेवालों ने मंदार क्षेत्र की महिमा का विस्तार से गुणगान किए जानेवाले भाग को ही काटकर इन पुराणों का ‘संक्षिप्त संस्करण’ निकाल दिया। आश्चर्य कि बात है कि अब आप इन मुख्य पुराणों को खरीदने बाज़ार में जाएँ तो आपको ‘संक्षिप्त विष्णु पुराण’, ‘संक्षिप्त स्कंद पुराण’, ‘संक्षिप्त पद्म पुराण’ ही मिलेंगे। इसे भी अपनी जानकारी में जोड़ लिया जाए कि ऐसा सभी प्रकाशनों के साथ है न कि किसी ख़ास के साथ।
अंग क्षेत्र के सर्वाधिक चर्चित मंदार पर्वत के साथ ‘समुद्र मंथन’ की गाथा जुड़ी है। पद्म पुराण के पाताल खंड (अध्याय-109, श्लोक – २१ से 60)  में यह चर्चा है कि आदिकाल में इस पर्वत के नीचे ‘मंदारपुरी’ नामक एक विशाल नगर था जो नगरद्वारों, गोपुरमों और प्रतिमाओं से सुसज्जित था। यह नगर ८८ तालाबों से घिरा हुआ था। यहाँ ५२ गलियों वाले ५३ बाज़ार थे। इस नगर के बीचोंबीच शिव-परिवार की बड़ी-सी मूर्ति थी। इस नगर का वर्णन कहीं-कहीं ‘बालिशा नगर’ के नाम से भी मिलता है तो कहीं ‘अपर मंदार’ के नाम से।
मंदार के नीचे उन ८८ प्राचीन तालाबों में से अधिकतम का अस्तित्व आज भी है। इन तालाबों के बीच खड़े पत्थर के खूबसूरत लाट इसकी प्राचीनता के बारे में खुद ही बताते हैं। इसका अवलोकन आप मंदार पर्वत के शीर्ष से कर सकते हैं।  
इतिहासकार फ्रांसिस बुकानन, मोंटगोमरी मार्टिन, विलियम फ्रेंकलिन, जॉन फेथफुल फ्लीट,  जेडी बेगलर, हंटर, जोसेफ बायर्ने, राधाकृष्ण चौधरी, एएस आल्टेकर, डॉ. अभय कान्त चौधरी, ‘बिहार दर्पण’ के लेखक गदाधर प्रसाद अम्बष्ठ ने मंदार के नीचे विशाल नगर के प्रमाण देखे थे। इन सबों ने यहाँ शिल्पकृत पत्थरों की श्रृंखलाओं को लंबी दूरी तक बिखरा हुआ देखा। आज भी यहाँ शिल्पकृत ये पत्थर काफी दूरी तक फैले हुए हैं। जन-जागृति के अभाव में इसका एक बड़ा हिस्सा उठाकर लोग ले गए। मूर्तियाँ तस्करों के हाथों बेच दी गयीं। बावजूद इसके, यहाँ अभी भी महत्वपूर्ण चीज़ें ज़मीन में दफ्न हैं जो यदाकदा मिलती रहती हैं।
यह चिर-प्रतीक्षित और अति महत्वपूर्ण सवाल है कि इतने महत्त्व के नगर को आख़िर किसने क्षति पहुंचाई? और... इससे भी बड़ा सवाल कि इतनी बड़ी क्षति पहुंचाने के बाद इसे महत्वपूर्ण धर्मग्रंथों से हटाने का प्रपंच आख़िर किसने रचा होगा?
इतिहासज्ञों की मानें तो विभिन्न पुराण विभिन्न कालों में रचे गए और इसी तरह अन्य धार्मिक पुस्तकें भी। उपरोक्त तीनों पुराणों के बारे में कहा जाता है कि ये ईसा के बाद तीसरी शताब्दी के आसपास रचे गए। फिर कालिदास के काल में और इसके बाद 9वीं सदी में ‘योगिनी पुराण’ वगैरह में मंदार की चर्चा है। आख़िर इस बीच के ६०० सालों में इसकी क्या और कहाँ चर्चा हुई, यह गौण है।
पाल वंश के काल में इस क्षेत्र में 9वीं सदी में विशाल महाविहार ‘विक्रमशिला’ की स्थापना की गई। तब यह क्षेत्र भी बौद्धों का केंद्र रहा। इससे पहले भगवन बुद्ध द्वारा दीक्षित सबसे अधिक उम्र के शिष्य और कौल-विद्या के महारथी सुपिंदोला भारद्वाज का निवास यहीं था, जिनको सम्राट अशोक ने अपने शासन क्षेत्र में धर्म प्रचार के लिए बुलाया था।
इसके अलावा, अंग महाजनपद की दक्षिणी ओर के दो विख्यात मंदिरों बैद्यनाथ और बासुकीनाथ को भी ज्योतिर्लिंगों में शामिल नहीं किया जाना उपेक्षा ही तो है। मुद्दे को गौर कीजिए तो आपको स्पष्ट महसूस होगा कि शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों के वर्णन में “परल्यां वैद्यनाथं ...” कहकर बैद्यनाथ देवघर (झारखंड) को काटकर परली (महाराष्ट्र) को स्थापित कर दिया गया!
इतना ही नहीं, ‘बौधायन धर्मसूत्र’ में इस इलाके में जाने तक को भी निषेध करार दिया गया। कहा गया है कि यहाँ जाने पर पुनः संस्कार कराना पड़ता है। यह   

“अंग बंग कलिंगेषु सौराष्ट्र मगधेषु च ।
तीर्थ यात्रां बिना गच्छन् पुनः संस्कारमर्हति ॥“
                                                (बौधायन धर्मसूत्र, 1 : 1 : 2)

लोकगीतों में भी इस क्षेत्र की भर्त्सना कम नहीं की गई है। अँगरेज़ विद्वान जी. ए. ग्रिएर्सन ने एक भोजपुरी गीत की कुछ लाइनों को उद्धृत किया है –
“भागलपुर के भगेलिया, कहलगाँव के ठग
पटना के दिवालिया, तीनों नामज़द ।“

यह पर्यावरणीय सत्य है कि जिस उर्वर भूमि में लोगों का आना-जाना नहीं होता है वहां झाड़ियां उग आती है। पेड़ उभर आते हैं। जैसा कि परित्यक्त घरों या हवेलियों के साथ भी होता है। ऐसा ही इस क्षेत्र में भी हुआ। लोगों द्वारा परित्यक्त होने के कारण यह क्षेत्र पेड़-पौधों से भर गया और एक विशाल जंगल बन गया। तब इस जंगल में वे ही लोग आते-जाते रहे जिन्हें जंगल में शिकार करने की चाहत रही। औरंगज़ेब का भाई शाह शुज़ा जब बंगाल का गवर्नर था तब इस इलाक़े में वो शिकार करने आता था। इस बात के गवाह जगह-जगह पर उसके रहने के लिए बने मकान थे जिसके अपभ्रंश अब भी मौजूद हैं। बांका जिले के रजौन (स्टेट हाइवे -19) और अमरपुर में भी ‘शुज़ा शिकारगाह’ के अवशेष होने की जानकारी है। इसी तरह गोड्डा, राजमहल जैसे क्षेत्रों में भी इसके शिकारगाह मिले हैं।
          इसी तरह खड़गपुर (मुंगेर) रियासत के बनने की कहानी भी -राजपूत राजा संग्राम सिंह के आखेट पर आने और मनोरम जगह देखकर अपनी खड्ग (तलवार) ज़मीन पर डाल देने के कारण यह जगह ‘खडगपुर’ कहलाया- ज्ञात है।       
मुगलों और अंग्रेजों के आते-आते यह उपेक्षित क्षेत्र विशाल जंगल से भर गया जिसे ‘जंगलतरी’ इलाक़ा कहा जाने लगा। इसका नाम चंपा-मालिनी से बदलकर ‘भागलपुर’ रख दिया गया जो सिर्फ ‘नीचा दिखाने’ के लिए किया गया होगा। इसका अर्थ ही है ‘भगोड़ों का गाँव’। सनद रहे, यह नाम किसी ‘भगदंतपुर’ का अपभ्रंश नहीं है। ...फिर तो क्लीवलैंड के ज़माने में संतालों को छोटा नागपुर से लाकर यहाँ बसाकर ज़मीनों के पट्टे दिए गए। उन्होंने ये जंगल काटे और खेती की सूत्रपात हुई।
          इतनी लंबी बात कहने का हमारा मतलब सिर्फ इतिहास बांचना नहीं था, बल्कि हमें चेतना होगा। अब भी सरकारें किसी को हों; भारत के अन्य प्रसिद्ध स्थानों की तरह इसका विकास नहीं हुआ। हम अब भी परित्यक्त ही हैं। आपसी मतभेद भुलाकर हमें एकजुट रहना होगा। याद रहे, हम उनकी लफ्फाज़ियों में फंसकर जाति और संप्रदाय में बंटकर लंबे समय से उपेक्षा का शिकार रहे हैं। इतिहास ने भी हमें उपेक्षित ही किया।  
जय अंग ! जय अंगिका !!

Monday, April 30, 2018

बांका में शिक्षा की मशाल जलानेवाली - रानी महकम कुमारी

ठाकुराइन या रानी जो भी कह लीजिये, महकम कुमारी के लिए मान्य था। वो तत्कालीन भागलपुर और अब बांका जिले के लक्ष्मीपुर एस्टेट की संयोगवश ज़मींदार हो गई थी। संयोगवश, इसलिए कि यह वो दौर था जब लक्ष्मीपुर एस्टेट ने ब्रिटिश हूकूमत के सामने अपनी छवि को बदलने की कोशिश की। इससे पहले के ज़मींदारों की छवि तत्कालीन शासन की निगाह में अच्छी नहीं थी। दोस्तों से ज्यादा दुश्मनों की तादाद थी जिसने रक्तरंजित इतिहास और तनाव की चरम अवस्था को जन्म दिया था। सनद रहे कि ठाकुर रूप नारायण देव के पिता ठाकुर जगन्नाथ देव ही घटवाल विद्रोह (इतिहास में कहीं-कहीं भूयां या घटवाल विद्रोह के नाम से इसका ज़िक्र है) के प्रणेता थे। इन दोनों पिता-पुत्र के नाम से ही वायसराय वारेन हेस्टिंग्स के तन-बदन में आग लग जाती थी। इसकी झलक वारेन हेस्टिंग्स के प्रकाशित पत्रों से भी मिलती हैं। 
रूप नारायण देव के गुजरने के कुछ दशकों तक इस परिवार की दो पीढ़ियों ने गद्दी संभाले लेकिन अंग्रेज़ी हूकूमत के कोप से अपने बचाव में ही उन्होंने वक़्त गुज़ार दिया। एक वक़्त वह भी इस ठाकुर परिवार पर आया जब इस परिवार में गद्दी संभालने वाला कोई नहीं बचा। ठाकुर ललित नारायण देव के गुजरने के बाद इस परिवार की बड़ी बहू होने के कारण महकम कुमारी ने पुश्तैनी तलवार, पगड़ी और कुर्सी संभाल ली। यह काँटों का ताज़ उनकी कोशिश से फूलों का ताज बन गया और यह एस्टेट महारानी विक्टोरिया के ‘अतिथियों’ में शुमार हुआ।  
इतिहास गवाह है कि सनकी पुरुषों की राजसत्ता पर जब महिलाएं काबिज़ हुई हैं तो परिणाम अच्छे मिले हैं। इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि लक्ष्मीपुर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। महकम कुमारी ने परिवार के अन्दर भी लम्बे समय से चल रहे षड्यंत्र और कई अदालतों में चल रहे मामलों के बाद भी रानी लक्ष्मीबाई की तरह चुस्ती, फुर्ती और चपलता दिखाई। रिवाजतन परदे से निकलकर मीराबाई की तरह लोक-लाज त्यागकर उन्होंने राज दरभंगा का रूख किया और लक्ष्मीपुर के हित में काम किया। इस दौरान शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय के लिए जनसंपर्क बढ़ाया गया। रियासत के लोगों से मिलने-जुलने के लिए लक्ष्मीपुर एस्टेट के दरवाज़े खोल दिए गए। जनता को सम्मान दिया गया। ईश्वर की कृपा पाने और समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए मंदिर बनवाए गए। कहा जाता है कि यह वक़्त लक्ष्मीपुर के लिए स्वर्णिम था। यही वह दौर था जब बांका में रानी महकम कुमारी उच्च विद्यालय की स्थापना की गई। सभी सुधारों की यहीं से शुरुआत थी।
१९वीं सदी का पूर्वार्द्ध हो या उत्तरार्द्ध भागलपुर का बांका क्षेत्र ‘जंगलतरी इलाक़ा’ कहलाता था। यह इलाक़ा जंगल था। दिल्ली-कोलकाता की हूकूमत का यहाँ कोई ख़ास असर नहीं था। यहाँ छोटे-छोटे कुनबों में लोग रहते थे। बांस और उसके छीलन की चौड़ी पट्टियों से बुनी हुई धड़िया (कारपेट) से लोग अस्थायी आवास बनाया करते थे। यहाँ के लोग जलावन की लकड़ियाँ जंगलों से लाते थे और कम मात्रा में ही सही खेतों में रोपनी-डोभनी कर गुज़ारे के लिए अन्न उपजा लेते थे लेकिन यह प्रक्रिया भी आसान नहीं थी।
यहाँ का जंगलतरी इलाक़ा बाघ, चीता जैसे हिंसक जानवरों से भरा पड़ा था और इस बीच बसा था तब का बांका गाँव। एक अँगरेज़ सर्वेयर फ्रांसिस बुकनन १८१० में इस होकर गुज़रे थे। उन्होंने अपने सर्वे में इस बात का ज़िक्र भी किया है कि यहाँ के पुरुष तन को ढकने के लिए एक कपड़ा पहनते थे और स्त्रियां घुटने के ऊपर से लेकर सर तक ढकी रहती थीं। पेड़ों पर ‘हनुमान’ आउ... आउ... करते रहते थे। तब के बांका की आबादी जयपुर और सबलपुर कस्बे से भी कम थी।   
फ्रांसिस बुकनन हेमिल्टन मैसूर और नेपाल के सर्वे करने के बाद बांका आए और लखनौढ़ी होते हुए मंदार भी पहुंचे थे। इसका ज़िक्र उन्होंने अपनी डायरी में किया था जिसे इंडियन सिविल सर्विस के सी.ई.ए.डब्ल्यू ओल्डहम ने अपने रिटायर्मेंट के बाद ‘जर्नल ऑफ़ फ्रांसिस बुकनन कैप्ट ड्यूरिंग द सर्वे ऑफ़ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ भागलपुर इन १८१०-11’ के नाम से प्रकाशित किया।
ऐसी जगह में औपचारिक शिक्षा के महत्व को तब लोग कम ही जानते थे।
सन १९०१ में जब जोसफ़ बायर्ने बांका पहुंचे तब बांका की आबादी १०९१ थी। इससे दो वर्षों पहले यहाँ की आबादी कितनी रही होगी इसे सहज ही पता लगाया जा सकता है। यहाँ १२ कैदियों के लिए एक जेल था और एक छोटा न्यायालय भी। बायर्ने के बांका पहुँचने से २ वर्षों पूर्व यानी १८९९ में लक्ष्मीपुर के ज़मींदार ठाकुर ललित नारायण देव की पत्नी रानी महकम कुमारी ने बांका में एक स्कूल की नींव रखी जिसे रानी महकम कुमारी हाई इंग्लिश स्कूल नाम दिया गया। इससे पहले यहाँ औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई योग्य संस्था नहीं थी। शिक्षा तो सिर्फ यहाँ के संभ्रांत वर्ग के लोगों के लिए ही थी जो काशी जाकर प्राप्त करनी होती थी। इस वक़्त शिक्षा प्राप्ति की एक और वैकल्पिक व्यवस्था थी जो राजपुरोहित ही देते थे। यह धर्म से जुड़ी संस्कारिक शिक्षा होती थी जो संस्कृत आधारित थी। राजकाज के लिए शासन से जुड़े लोग अरबी का ज्ञान मौलवियों से ले लेते थे। तब के नार्थ-ईस्ट बंगाल में महाल (महाराजा) से ज़मींदारों को अरबी-इंग्लिश ट्रेनिंग देने के लिए लोग बहाल किये जाते थे।
सन १८६९-70 में भागलपुर में एक मात्र जदुनाथ चौधरी स्कूल था। इसका संचालन मधेपुरा एस्टेट द्वारा किया जा रहा था। ‘जनरल रिपोर्ट ऑन पब्लिक इंस्ट्रक्शन इन द लोअर प्रोविन्स ऑफ़ बंगाल १८६९-70’ में इसका ज़िक्र है। जिला मुख्यालय होने के बाद भी तब वर्नाकुलर स्कालरशिप सर्टिफिकेट के लिए आहूत परीक्षा में कुल ४ विद्यार्थी अपीयर हुए थे जिसमें कन्हाई लाल सिन्हा और काशी चरण दत्ता ही पास थे। नियमानुसार, इस परीक्षा में यूरोपियन का हिस्सा लेना वर्जित था। यही काशीचरण दत्ता इस रानी महकम कुमारी इंग्लिश हाई स्कूल के पहले प्रधानाध्यापक बने।
उपरोक्त रिपोर्ट के मुताबिक बांका में एक प्राथमिक विद्यालय था जो प्राइवेट था। सन १८७० में बांका के एस.डी.ओ. बाबू रासबिहारी बोस थे। उन दिनों लोग कचहरी से जारी परवाना को समझने के लिए पढ़ाई करते थे और संतालों में शिक्षा प्राप्त करने की ललक जाग रही थी। संताली स्कूलों का संचालन शुरू हो चुका था। संताल विद्रोह के बाद सरकार द्वारा विद्रोहों को कुचलने की लंबी रणनीति के तहत इसे लागू किया गया था।
कमोबेश हरेक स्कूल में उर्दू-अरबी-पारसी, इंग्लिश और संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी। इसके लिए वेतनमान क्रमशः ८०:७५:४० रूपये निर्धारित थे। हरेक स्कूल में इंग्लिश के जानकार ही हेडमास्टर होते थे। ब्रिटिश सरकार ने इंग्लिश को भारतीय लोगों तक पहुँचाने के लिए ‘हिडेन एजेंडा’ चला रखा था जिसका विरोध आमतौर पर लोग स्कूल न जाकर दर्ज़ कराते थे।
सर वुड्स द्वारा भारत में आमलोगों को शिक्षा प्रदान करने के लिए एक प्रस्ताव सौंपा गया जिसे इंडिया एजुकेशन कमीशन १८८२ की सहमति से १8९८ में लार्ड कर्ज़न के वायसराय बनने के बाद पेश किया गया। कर्ज़न ने इसे गंभीरता से लिया और सितम्बर १९०१ में शिमला सम्मेलन से इसकी शुरुआत की जिसका दवाब राज दरभंगा पर भी था।
इस वक़्त राज दरभंगा में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह बहादुर गद्दी पर आसीन थे। कुल 30 वर्षों तक राजपाट चलाने के बाद सन १८९८ में ये चल बसे। दो वर्ष की उम्र में पिता के गुजर जाने के बाद इनकी शिक्षा-दीक्षा ईस्ट इंडिया कंपनी के एक विंग ‘कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स’ की देखरेख में हुई। इंग्लिश आधारित शिक्षा पानेवाले अपने कुल में वे पहले व्यक्ति थे। अपनी गद्दी संभालने के बाद उन्होंने इंग्लिश आधारित शिक्षा को लोगों तक पहुंचाने पर जोर दिया। राज दरभंगा के मातहत सभी ज़मींदारों को उन्होंने इसके लिए अपने आरंभिक काल से ही तैयारी करानी आरम्भ कर दी थी। अपने शासन के उत्तरवर्ती काल में उन्होंने इसके लिए सभी ज़मींदारों पर दवाब डाला था। वे अपने क्षेत्र के लोगों को शिक्षित देखना चाहते थे ताकि मुंहफट अंग्रेज़ कभी भी उन्हें ‘मूर्खों का राजा’ कहकर लज्जित न करे।
सन १८४८ से लक्ष्मीपुर की ज़मींदारी पर अधिकार को लेकर राज बनैली और राज दरभंगा के बीच प्रिवी काउंसिल में विवाद चल रहा था। लक्ष्मीपुर के ज़मींदार और खड़गपुर के राजा क़ादिर अली की रियासत के बीच पहले से ही चल रहे विवाद ने ‘चरम तनाव’ के इस मुद्दे को जन्म दिया था। वैसे कहा यह भी जाता है कि कादिर अली को वारेन हेस्टिंग का आशीर्वाद प्राप्त था। लक्ष्मीपुर की मदद इन दिनों हर स्तर पर दरभंगा नरेश करते रहे। विदित हो कि लक्ष्मीपुर ज़मींदारों का इतिहास विवादों से घिरा रहा। आस-पड़ोस के सभी ज़मींदार इनके धुर-विरोधी रहे। इस बीच १८८५ में रानी महकम कुमारी ने प्रताप नारायण देव को गोद लेकर अनौपचारिक घोषणा के बाद फरवरी १९०२ में धूमधाम से गद्दी सौंप दी। इस वक़्त वे १८ साल के थे।
सन १८८५ में प्रताप नारायण को गोद लिए जाने के वक़्त से ही उनका विरोध शुरू हो गया। पहले से ही दुश्मनों से घिरा लक्ष्मीपुर रियासत इस वक़्त काफी परेशान था, तिसपर भी गद्दी पर किसी पुरुष के न रहने से परेशानी और बढ़ गई थी। ऐन मौके पर राज दरभंगा ने अहम मदद की थी। इस गोद लेने की घटना से पहले ही किसी बड़ी मदद की अपेक्षा से रानी महकम कुमारी दरभंगा नरेश महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह बहादुर के पास गुप्त रूप से पहुंचीं थीं। कहा जाता है कि वे १३ दिनों तक वहीं राज-आतिथ्य में रुकीं। इस दौरान महाराजा से उनकी कई किश्तों में वृहद् चर्चा हुई। उनके व्यस्ततम दिनचर्या में समय निकाल पाना सरल नहीं था लेकिन उनसे मुलाक़ात करके सभी विन्दुओं पर चर्चा जरुरी थी जो अपेक्षानुसार हुई भी।
इस मुलाक़ात से राज दरभंगा के साथ लक्ष्मीपुर का संबंध काफ़ी बेहतर हुआ। महाराजा ने लक्ष्मीपुर की हर संभव मदद की और एक बालक को उत्तराधिकारी के तौर पर स्थापित करने के लिए अपने जाति-समाज से ही गोद लेने को कहा। इसी दौरान वायसराय के कोप से बचने के लिए उन्होंने एक विद्यालय के निर्माण का सुझाव भी दिया जो पहले से ही उनके एजेंडे में शामिल था। उन्होंने यह भी बताया था कि इसे अपनी रहवास वाली जगह पर न खोलकर ज्यादा आबादी वाली जगह में खोला जाए जहाँ सरकारी मुलाज़िमों का आना-जाना लगा रहे।
इस विद्यालय के लिए उन्होंने लक्ष्मीपुर एस्टेट को आर्थिक सहायता की प्रथम किश्त भी दी थी लेकिन १८९८ में ही उनकी मृत्यु हो जाने के कारण पूरी सहायता और वायसराय तक लक्ष्मीपुर एस्टेट के पक्ष में पैरवी नहीं हो पाई। यह भी कहा जाता है कि इस स्कूल का नाम महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के नाम पर रखा जाना तय था लेकिन लक्ष्मीश्वर सिंह के उत्तराधिकारी रामेश्वर सिंह के सामने इस गुप्त सहायता का जिक्र कतिपय कारणों से महकम कुमारी द्वारा नहीं किये जाने के कारण इसका नाम बदल दिया गया ताकि बनैली एस्टेट को इसकी भनक नहीं लगे जो एक रणनीति का हिस्सा था।
सन १८९९ में लोगों से कुछ ज़मीन लेकर कचहरी और जेल के एकदम समीप राजकीय सहायता से एक इंग्लिश स्कूल की स्थापना बांका में की गई और इसका नाम रानी महकम कुमारी हाई इंग्लिश स्कूल रखा गया। यहाँ संभवतः ‘इंग्लिश’ का प्रयोग अंग्रेज़ी शासन को पोहलाने के लिए प्रयुक्त किया गया। साथ ही इस स्कूल की स्थापना सरकारी संस्थाओं के करीब किये जाने का एक रणनीतिक उद्देश्य था जिसका फल भी आनेवाले समय में लक्ष्मीपुर शासन को मिला। सन १९०७ में इस स्कूल को वुड्स डिस्पैच के तहत शामिल भी किया गया।
इससे पहले यह ज़िक्र करना अनिवार्य है कि फ्रांसिस बुकनन भागलपुर का सर्वे करने के दौरान लक्ष्मीपुर के ज़मींदार रूपनारायण देव से उनके आवास पर मिले थे तब उन्होंने बुकनन के साथ अपेक्षित व्यवहार नहीं किया था जिसकी चर्चा उन्होंने अपनी डायरी में की है। कलकत्ता में बैठे वायसराय को भी इसकी खबर लगी। इसने आग में घी का काम किया। इससे पहले के घटनाक्रम में रूपनारायण देव के पूर्वज जगन्नाथ देव के विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार के अन्दर लक्ष्मीपुर ज़मींदारी के प्रति ज़हर घोला था जिसका प्रयोग इनके दुश्मनों ने मौके पर करके अपना-अपना फायदा उठाया। इनकी यही छवि इनकी व्यवस्था पर भारी पड़ गई थी। रानी महकम कुमारी ने अपने कौटिल्य-बल से सरकारी कोप कम करने की सफल कोशिश की। इसका प्रभाव इन्होंने अपने बाद की पीढ़ी पर भी छोड़ा।
सन १९11 में यहाँ के ठाकुर प्रताप नारायण देव ने राजनीतिक अपेक्षाओं के तहत प्रताप नारायण संस्कृत विद्यालय की स्थापना लक्ष्मीपुर एस्टेट से 200 मीटर की दूरी पर की। इसके पीछे राज दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह से अच्छे संबंध स्थापित करने की मानसिकता थी। विदित हो कि महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के उलट महाराजा रामेश्वर सिंह संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और तब के नामी ज्योतिषी और तांत्रिक भी। वे काली के अनन्य उपासक थे। हालांकि अंग्रेज़ी शिक्षा को लेकर उनका विरोध बहुत ज्यादा नहीं कहा जा सकता है लेकिन संस्कृत के धुर-पक्षधर थे।
इसी वक़्त यहाँ काली मंदिर की स्थापना की गई और तांत्रिक ढंग से पूजन की शुरुआत भी। काली मंदिर के साथ-साथ अन्नपूर्णा मंदिर की स्थापना भी की गई। शिव-पार्वती मंदिर का निर्माण वहां पहले हुआ था और जगन्नाथ मंदिर का बाद के कुछ वर्षों में। यह सुझाव महाराजा रामेश्वर सिंह का ही था। हालांकि, बाद के शासक कामेश्वर नारायण सिंह से रिश्ते उतने बेहतर नहीं रह सके।
इस संस्कृत विद्यालय के शुरुआती दौर में अपनी प्राथमिक शिक्षा यहीं से पूरी करने वाले श्री जगदम्बा प्रसाद सिंह अपना अनुभव बताते हैं। वे बताते हैं कि यही विद्यालय १९५६-57 में बाद में बौंसी में संस्कृत महाविद्यालय के तौर पर स्थापित किया गया जो कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से मान्यता प्राप्त है। इससे पहले राज लक्ष्मीपुर ने अपना ठिकाना और राज-कचहरी भी देवघर में स्थापित कर लिया।
बौंसी में सन १९२६ में ठाकुराइन कुसुम कुमारी मिडिल इंग्लिश स्कूल की स्थापना के पीछे भी प्रतिष्ठा में सुधार की ही भावना रही। यह स्कूल सन १९३९ में चन्द्र नारायण देव हाई इंग्लिश स्कूल में परिणत हो गया और इसके बगल में ठाकुराइन कुसुम कुमारी मिडिल स्कूल का निर्माण भी कर दिया गया। हालांकि, भारत की आज़ादी के साथ ही इन विद्यालयों के टाइटिल से ‘इंग्लिश’ गधे के सिर से सिंग की तरह गायब हो गया।
इसमें कोई शक नहीं कि चाहे किसी भी कारण से हो लक्ष्मीपुर राज ज़मींदार घराने ने लम्बे संघर्ष के बाद भी अपने सीमा क्षेत्र से आगे बढ़कर लोगों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने की कई सफल कोशिशें कीं। बांका का १९वीं सदी का रानी महकम कुमारी उच्च विद्यालय इसका जीता-जागता मिसाल है।