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Sunday, November 19, 2017
Wednesday, November 15, 2017
विश्व का अनोखा एकलौता मंदिरजहाँ दीपावली के अवसर पर जलाये जाते थे लाखों दीये एक साथ
समुद्र मंथन की कहानी से जुड़े मंदार या मंदराचल पर्वत की पूर्वी तलहटी के जंगलों के बीच छुपे लखदीपा मंदिर के भग्न अवशेष अब भी पड़े हैं जहाँ दीपावली के अवसर पर लाखों दीये जलाने की परंपरा थी। यहाँ एक घर से एक ही दीया जलाने का नियम था। कहते हैं कि इस जगह पर पहले बालिशा नगर हुआ करता था जहाँ रहनेवाले लोग लखदीपा मंदिर में इन दीयों को जलाते थे। यह पर्वत बिहार के बांका जिले में है, जहाँ तक पहुँचने के लिए भागलपुर-दुमका मुख्यमार्ग या रेलमार्ग की सहायता लेनी होती है।
इस प्राचीन बालिसा नगर की लखदीपा में दीप जलाने की यह परंपरा आज भी जनमानस में जीवित है। मंदार के स्थानीय लोग बौंसी के भगवान मधुसूदन के मंदिर में दीपावली के अवसर पर दीप अर्पित करने के बाद उस दीये से एक अन्य दीया जलाकर बाल्टी में रखकर अपने घर लाते हैं, फिर उसी से घर के अन्य दीये को प्रज्वलित करते हैं।
वैसे तो यह जगह पुरातात्विक संपदाओं से अटा पड़ा है। मिट्टी में दबे हुए मंदिरों के अवशेष, शिवलिंग, सर्वत्र बिखरे हुए पत्थर काटकर बनाए गए स्तम्भ, भवन निर्माण में लगाए जानेवाले पत्थर के मेहराब, चकरियां और कितने ही तरह के सामान यहाँ आपको सहज ही देखने को मिल जायेंगे। ये पत्थर इसी मंदार पर्वत की पश्चिमी छोर से काटकर तराशे जाते थे, जिसके प्रमाण मौजूद हैं। ऐसे तराशे गए स्तम्भ और अन्य भवन निर्माण में प्रयोग में आनेवाली अन्य पत्थर की सामग्रियां यहाँ पर्वत के नीचे कई मीलों तक फैली हुई हैं। इस पूरे क्षेत्र को बालिशा नगर कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों और स्थानीय इतिहास के श्रोतों से पता चलता है कि यह नगर उत्तर गुप्त काल से आबाद था जो मुग़लों के समय परित्यक्त होकर काल के गाल में समा गया।
लखदीपा मंदिर के अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि यह संरचना आयताकार थी। इसका क्षेत्रफल २५ फीट था। ज़मीन से नौ फीट ऊंचाई वाले एक चबूतरे के ऊपर पत्थर के चार स्तंभों पर इस मंदिर को टिकाया गया था जिसपर मंदिर के ऊपर का गुम्बद अवस्थित था। यह गुम्बद बंगाल-शैली का था। अन्दर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे आधे कटे हुए विशाल टेनिस बॉल को आधार बनाकर इसे मोर्टार से ढाला गया हो।
नौ सीढ़ियों से होकर इस मंदिर के ढांचे पर चढ़ा जा सकता है। इसके अवशेषों से पता चलता है कि चढ़ने के लिए एक ही ओर सीढ़ी थी। मंदिर के बीचोंबीच साढ़े चार फीट ऊँचा षटकोणाकार बारह इंच फलक वाला मोटा सा एक स्तम्भ था, जो दीप वेदिका कही जाती थी। इस पर एक विशाल दीप व उसके चारों ओर दर्जनों छोटे दीये जलाये जाने का रिवाज़ था। इस स्तम्भ के छह फलकों में एक-एक दीये जलाने के लिए ताखे बने हैं।
छह फलकों वाले इस स्तम्भ या वेदी तक चढ़ने के लिए बनाई गई सीढ़ियों और ऊँचे चबूतरे के चारों ओर दीये रखने के लिए ताखे बनाए गए थे। ये ताखे पांच इंच लंबाई और तीन इंच चौड़ाई के हैं जो दो इंच गहरे हैं। कुछ ताखे इनसे भी थोड़े छोटे हैं।
ऊपर चढ़नेवाली सीढ़ी में दोनों तरफ दीये रखने के ताखे बने हैं। सिर्फ एक तरफ़ में ताखों की संख्या ५१ हैं। कुल १०२ दीये सीढ़ियों में रखकर जलाए जाते थे। इन सीढ़ियों में कुशल कारीगरी की मिशाल झलकती है। ज़मीन से ऊपर की ओर से क्रमशः चौदह-बारह-दस-सात-पांच-तीन की इनकी सज्जा हैं।
ऊपर चढ़ने के लिए बनाई गई सीढ़ी चबूतरे की जिस दीवार से चिपकी हुई है उनमें दोनों भी ताखे बनाए गए थे। एक ओर ७२ की संख्या में ये ताखे अब भी बने हुए हैं। ऐसा दोनों तरफ है और यह क्रम बारह-बारह का है जिसकी छह पंक्तियाँ हैं। पश्चिमी ओर की इस दीवार में कुल एक सौ ४४ दीये जलाने की व्यवस्था थी। ये ताखे चबूतरे के चारों ओर बने थे।
इस चबूतरे के चारों कोनों पर लगभग छह फीट ऊँचे चार तुलसी चौरों की तरह संरचना निर्मित की गई थी। ये अवशेष भी धराशायी हैं जिन्हें साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। ये सभी चौरे षटकोणाकार थे। इनके एक-एक फलक में छह ताखे बने हुए थे। इस स्तम्भ या चौरे के ऊपर भी एक-एक बड़ा दीया और उसके चारों ओर कई छोटे-छोटे दीये कई पंक्तियों में जलाने की परंपरा थी।
इस मंदिर से पंद्रह फीट की दूरी पर पश्चिम, उत्तर और पूरब की दिशा में एक चाहरदीवारी होने का प्रमाण मिलता है। इन दीवारों में भी व्यापक रूप से पांच इंच की दूरी पर दीप रखने के लिए ताखे बने हुए हैं। ये ताखे पांच इंच चौड़े, सात इंच लम्बे और तीन इंच गहरे हैं जो दीवार के दोनों तरफ सिलसिलेवार ढंग से निर्मित किए गए हैं। यह दीवार २५ फीट लंबाई-चौड़ाई और ३० इंच मोटाई की है। इस दीवार की ऊंचाई कितनी रही होगी इसका सही-सही अंदाज़ा खुदाई के बाद उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही संभव होगा।
लखदीपा या लक्षदीपा से पश्चिम में पर्वत की ओर डेढ़ सौ मीटर या इससे भी अधिक दूरी तक दीवार होने के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें दीये रखने के ताखे बने हैं। यहाँ सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दीवारों में भी उकेरे गए ताखे लाखों दीये जलाए जाने के दावे या कथन का हिस्सा हो सकते हैं।
यह मंदिर पत्थर के स्तंभों और ईंटों से बनाया गया है जिसमें प्लास्टर के लिए सुर्खी-चूना का उपयोग किया गया है। एक पत्थर के स्तम्भ को दूसरे से जोड़ने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले लोहे की चौकोर या चौपहल छड़ का उपयोग किया गया है। इस छड़ की खासियत है कि इसमें अभी भी जंग नहीं लगे हैं। इससे पता चलता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया गया होगा तब भी तकनीक कितनी विकसित रही होगी!
इस मंदिर के भवन निर्माण की शैली बताती है कि यह मंदिर ७ वीं -8 वीं शताब्दी का है। भागलपुर के कहलगांव में प्राप्त विक्रमशिला महाविहार के अवशेषों में प्रयुक्त ईंट और लखदीपा के ईंट एक जैसे हैं। दोनों में एक ही प्रकार के भवन निर्माण सामग्रियों और वास्तुकला का प्रयोग किया गया है। गौरतलब है कि मंदार क्षेत्र के इस मंदिर से विक्रमशिला महाविहार की दूरी लगभग ६२ किलोमीटर है। पाल शासक धर्मपाल ने इसकी स्थापना की थी जो पाल वंश के संस्थापक गोपाल के पुत्र थे।
लखदीपा मंदिर के प्लेटफार्म या चौताल के ऊपर तक चढ़नेवाली सीढ़ी पर्वत की दिशा यानी पश्चिम से थी। इस सीढ़ी के ठीक सामने पूरे इक्यावन फीट की दूरी पर पार्वती का मंदिर था, जिसका दो मंजिला भग्नावशेष अब भी झाड़ियों में मौजूद है। और, ठीक इसके इक्यावन फीट आगे पर्वत की ओर शिव मंदिर था। इसके मलबे बताते हैं कि यह मंदिर भी तीस फीट से नीचे का नहीं रहा होगा। सामान्य तौर पर ज्ञात होता है कि इन टूटे मंदिरों में कोई मूर्ति नहीं है। शिव-पार्वती मंदिरों की परम्परा के अनुरूप शिव के साथ नंदी-भृंगी और गणेश का होना अनिवार्य है लेकिन ये कहाँ स्थापित रहे होंगे मलबे में यह अनुमान लगाना मुश्किल है। ये दोनों मंदिर और इसकी चाहरदीवारी में भी दीये रखने के ताखे बने हुए हैं जो लाखों दीये जलाने की परंपरा का हिस्सा थे।
पार्वती मंदिर में नीचे चारों ओर सुन्दर परिक्रमा पथ है जबकि शिव मंदिर के अवशेषों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘आधी परिक्रमा’ पथ का नियमानुसार अनुपालन यहाँ भी किया गया होगा। इन मंदिरों के बाहर भी दीये रखने के कुछ ताखे बने हुए हैं लेकिन ये हाथ की पहुँच से बाहर हैं। ऐसा लगता है कि सिर्फ खास उत्सवों पर ही यहाँ दीये जलाए जाते होंगे जिनमें दीपावली भी एक थी।
इन दोनों मंदिरों के भग्नावशेष कंटीली और खुजली वाली झाड़ियों से घिरे हैं। यहाँ तक पहुंचना कठिन तो जरुर है मगर असंभव नहीं।
इस जगह के अध्ययन से पता चलता है कि पर्वत से बहकर पानी इस ओर आता होगा, अतएव इससे होनेवाली क्षति से तीनों मंदिरों को बचाने के लिए ड्रेनेज की व्यवस्था भी अच्छी की गई थी। शिव मंदिर से लगभग सौ फीट आगे पश्चिम में मंदार पर्वत की तरफ लखदीपा, पार्वती और शिव मंदिर की सतह से काफी ऊँचा एक टीला है जिसे देखने से पता चलता है कि यह ईंटों और अन्य प्रकार की भवन निर्माण में प्रयुक्त तत्कालीन सामग्रियों से बना है जो अब मलबों के रूप में मौजूद है। यहाँ मृदभांड या टेराकोटा से बने बर्तनों के अंश काफी मात्रा में बिखरे पड़े हैं। इस लेखक को यहाँ से परतदार ग्रेनाईट (जिससे स्लेट का निर्माण किया जाता है) और चीनी मिटटी से बने बर्तनों के कुछ टुकड़े भी प्राप्त हुए हैं।
इस ढूह के उत्तर और दक्षिण दिशा में क्रमशः रानी और राजा पोखर हैं। इसके बारे में किंवदंती है कि इनमें रानी और राजा अलग-अलग स्नान करते थे। फिर तो यह स्वाभाविक ही है कि यहाँ उनके ठहरने की भी व्यवस्था रही होगी। शायद, यह ढूह उसी छोटे राजनिवास के मलबे पर टिका है। भारतीय पुरातत्व संस्थान अगर यहाँ खुदाई करे तो सब साफ़ हो जायेगा।
विदित हो कि उपरोक्त लखदीपा मंदिर की चर्चा अंग्रेज़ सर्वेयर फ्रांसिस बुकनन (हेमिल्टन), जोसेफ़ बायर्ने व अन्य ने भी की है लेकिन किसी ने भी इसके नाम की चर्चा नहीं की है। अलबत्ता, इतिहासकार डॉ. अभय कान्त चौधरी और शास्त्रीय विद्वानों ने बालिसा नगर के इस विशिष्ट मंदिर लखदीपा (लक्षदीपा) की चर्चा की है, जहाँ दीपावली के अवसर पर लाखों दीपक जलाने की परंपरा थी। बालिसा के हरेक घर से एक ही दीप जलाने के नियम का अनुपालन ईमानदारी से किया जाता था। बालिसा का यह लखदीपा मंदिर भगवान मधुसूदन को समर्पित था।
कहते हैं कि बावन गलियां, चौवन बाज़ार वाला नगर बालिसा अपने चारों ओर खूबसूरत तालाबों से घिरा था जिनमें रंग-बिरंगे कमल के फूल लगे थे। सभी लक्षणों से परिपूर्ण प्राचीन काल का यह नगर हर दृष्टिकोण से समृद्ध था जिसे नष्ट कर दिया गया। अबतक प्रकाशित तथ्यों के अनुसार, बंगाल के नवाब दाउद खां कर्रानी के सेनापति कालापहाड़ ने इसे बर्बाद कर दिया लेकिन वस्तुस्थितियाँ इसे सिरे से खारिज़ करती हैं।
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इस प्राचीन बालिसा नगर की लखदीपा में दीप जलाने की यह परंपरा आज भी जनमानस में जीवित है। मंदार के स्थानीय लोग बौंसी के भगवान मधुसूदन के मंदिर में दीपावली के अवसर पर दीप अर्पित करने के बाद उस दीये से एक अन्य दीया जलाकर बाल्टी में रखकर अपने घर लाते हैं, फिर उसी से घर के अन्य दीये को प्रज्वलित करते हैं।
वैसे तो यह जगह पुरातात्विक संपदाओं से अटा पड़ा है। मिट्टी में दबे हुए मंदिरों के अवशेष, शिवलिंग, सर्वत्र बिखरे हुए पत्थर काटकर बनाए गए स्तम्भ, भवन निर्माण में लगाए जानेवाले पत्थर के मेहराब, चकरियां और कितने ही तरह के सामान यहाँ आपको सहज ही देखने को मिल जायेंगे। ये पत्थर इसी मंदार पर्वत की पश्चिमी छोर से काटकर तराशे जाते थे, जिसके प्रमाण मौजूद हैं। ऐसे तराशे गए स्तम्भ और अन्य भवन निर्माण में प्रयोग में आनेवाली अन्य पत्थर की सामग्रियां यहाँ पर्वत के नीचे कई मीलों तक फैली हुई हैं। इस पूरे क्षेत्र को बालिशा नगर कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों और स्थानीय इतिहास के श्रोतों से पता चलता है कि यह नगर उत्तर गुप्त काल से आबाद था जो मुग़लों के समय परित्यक्त होकर काल के गाल में समा गया।
लखदीपा मंदिर के अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि यह संरचना आयताकार थी। इसका क्षेत्रफल २५ फीट था। ज़मीन से नौ फीट ऊंचाई वाले एक चबूतरे के ऊपर पत्थर के चार स्तंभों पर इस मंदिर को टिकाया गया था जिसपर मंदिर के ऊपर का गुम्बद अवस्थित था। यह गुम्बद बंगाल-शैली का था। अन्दर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे आधे कटे हुए विशाल टेनिस बॉल को आधार बनाकर इसे मोर्टार से ढाला गया हो।
नौ सीढ़ियों से होकर इस मंदिर के ढांचे पर चढ़ा जा सकता है। इसके अवशेषों से पता चलता है कि चढ़ने के लिए एक ही ओर सीढ़ी थी। मंदिर के बीचोंबीच साढ़े चार फीट ऊँचा षटकोणाकार बारह इंच फलक वाला मोटा सा एक स्तम्भ था, जो दीप वेदिका कही जाती थी। इस पर एक विशाल दीप व उसके चारों ओर दर्जनों छोटे दीये जलाये जाने का रिवाज़ था। इस स्तम्भ के छह फलकों में एक-एक दीये जलाने के लिए ताखे बने हैं।
छह फलकों वाले इस स्तम्भ या वेदी तक चढ़ने के लिए बनाई गई सीढ़ियों और ऊँचे चबूतरे के चारों ओर दीये रखने के लिए ताखे बनाए गए थे। ये ताखे पांच इंच लंबाई और तीन इंच चौड़ाई के हैं जो दो इंच गहरे हैं। कुछ ताखे इनसे भी थोड़े छोटे हैं।
ऊपर चढ़नेवाली सीढ़ी में दोनों तरफ दीये रखने के ताखे बने हैं। सिर्फ एक तरफ़ में ताखों की संख्या ५१ हैं। कुल १०२ दीये सीढ़ियों में रखकर जलाए जाते थे। इन सीढ़ियों में कुशल कारीगरी की मिशाल झलकती है। ज़मीन से ऊपर की ओर से क्रमशः चौदह-बारह-दस-सात-पांच-तीन की इनकी सज्जा हैं।
ऊपर चढ़ने के लिए बनाई गई सीढ़ी चबूतरे की जिस दीवार से चिपकी हुई है उनमें दोनों भी ताखे बनाए गए थे। एक ओर ७२ की संख्या में ये ताखे अब भी बने हुए हैं। ऐसा दोनों तरफ है और यह क्रम बारह-बारह का है जिसकी छह पंक्तियाँ हैं। पश्चिमी ओर की इस दीवार में कुल एक सौ ४४ दीये जलाने की व्यवस्था थी। ये ताखे चबूतरे के चारों ओर बने थे।
इस चबूतरे के चारों कोनों पर लगभग छह फीट ऊँचे चार तुलसी चौरों की तरह संरचना निर्मित की गई थी। ये अवशेष भी धराशायी हैं जिन्हें साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। ये सभी चौरे षटकोणाकार थे। इनके एक-एक फलक में छह ताखे बने हुए थे। इस स्तम्भ या चौरे के ऊपर भी एक-एक बड़ा दीया और उसके चारों ओर कई छोटे-छोटे दीये कई पंक्तियों में जलाने की परंपरा थी।
इस मंदिर से पंद्रह फीट की दूरी पर पश्चिम, उत्तर और पूरब की दिशा में एक चाहरदीवारी होने का प्रमाण मिलता है। इन दीवारों में भी व्यापक रूप से पांच इंच की दूरी पर दीप रखने के लिए ताखे बने हुए हैं। ये ताखे पांच इंच चौड़े, सात इंच लम्बे और तीन इंच गहरे हैं जो दीवार के दोनों तरफ सिलसिलेवार ढंग से निर्मित किए गए हैं। यह दीवार २५ फीट लंबाई-चौड़ाई और ३० इंच मोटाई की है। इस दीवार की ऊंचाई कितनी रही होगी इसका सही-सही अंदाज़ा खुदाई के बाद उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही संभव होगा।
लखदीपा या लक्षदीपा से पश्चिम में पर्वत की ओर डेढ़ सौ मीटर या इससे भी अधिक दूरी तक दीवार होने के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें दीये रखने के ताखे बने हैं। यहाँ सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दीवारों में भी उकेरे गए ताखे लाखों दीये जलाए जाने के दावे या कथन का हिस्सा हो सकते हैं।
यह मंदिर पत्थर के स्तंभों और ईंटों से बनाया गया है जिसमें प्लास्टर के लिए सुर्खी-चूना का उपयोग किया गया है। एक पत्थर के स्तम्भ को दूसरे से जोड़ने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले लोहे की चौकोर या चौपहल छड़ का उपयोग किया गया है। इस छड़ की खासियत है कि इसमें अभी भी जंग नहीं लगे हैं। इससे पता चलता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया गया होगा तब भी तकनीक कितनी विकसित रही होगी!
इस मंदिर के भवन निर्माण की शैली बताती है कि यह मंदिर ७ वीं -8 वीं शताब्दी का है। भागलपुर के कहलगांव में प्राप्त विक्रमशिला महाविहार के अवशेषों में प्रयुक्त ईंट और लखदीपा के ईंट एक जैसे हैं। दोनों में एक ही प्रकार के भवन निर्माण सामग्रियों और वास्तुकला का प्रयोग किया गया है। गौरतलब है कि मंदार क्षेत्र के इस मंदिर से विक्रमशिला महाविहार की दूरी लगभग ६२ किलोमीटर है। पाल शासक धर्मपाल ने इसकी स्थापना की थी जो पाल वंश के संस्थापक गोपाल के पुत्र थे।
लखदीपा मंदिर के प्लेटफार्म या चौताल के ऊपर तक चढ़नेवाली सीढ़ी पर्वत की दिशा यानी पश्चिम से थी। इस सीढ़ी के ठीक सामने पूरे इक्यावन फीट की दूरी पर पार्वती का मंदिर था, जिसका दो मंजिला भग्नावशेष अब भी झाड़ियों में मौजूद है। और, ठीक इसके इक्यावन फीट आगे पर्वत की ओर शिव मंदिर था। इसके मलबे बताते हैं कि यह मंदिर भी तीस फीट से नीचे का नहीं रहा होगा। सामान्य तौर पर ज्ञात होता है कि इन टूटे मंदिरों में कोई मूर्ति नहीं है। शिव-पार्वती मंदिरों की परम्परा के अनुरूप शिव के साथ नंदी-भृंगी और गणेश का होना अनिवार्य है लेकिन ये कहाँ स्थापित रहे होंगे मलबे में यह अनुमान लगाना मुश्किल है। ये दोनों मंदिर और इसकी चाहरदीवारी में भी दीये रखने के ताखे बने हुए हैं जो लाखों दीये जलाने की परंपरा का हिस्सा थे।
पार्वती मंदिर में नीचे चारों ओर सुन्दर परिक्रमा पथ है जबकि शिव मंदिर के अवशेषों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘आधी परिक्रमा’ पथ का नियमानुसार अनुपालन यहाँ भी किया गया होगा। इन मंदिरों के बाहर भी दीये रखने के कुछ ताखे बने हुए हैं लेकिन ये हाथ की पहुँच से बाहर हैं। ऐसा लगता है कि सिर्फ खास उत्सवों पर ही यहाँ दीये जलाए जाते होंगे जिनमें दीपावली भी एक थी।
इन दोनों मंदिरों के भग्नावशेष कंटीली और खुजली वाली झाड़ियों से घिरे हैं। यहाँ तक पहुंचना कठिन तो जरुर है मगर असंभव नहीं।
इस जगह के अध्ययन से पता चलता है कि पर्वत से बहकर पानी इस ओर आता होगा, अतएव इससे होनेवाली क्षति से तीनों मंदिरों को बचाने के लिए ड्रेनेज की व्यवस्था भी अच्छी की गई थी। शिव मंदिर से लगभग सौ फीट आगे पश्चिम में मंदार पर्वत की तरफ लखदीपा, पार्वती और शिव मंदिर की सतह से काफी ऊँचा एक टीला है जिसे देखने से पता चलता है कि यह ईंटों और अन्य प्रकार की भवन निर्माण में प्रयुक्त तत्कालीन सामग्रियों से बना है जो अब मलबों के रूप में मौजूद है। यहाँ मृदभांड या टेराकोटा से बने बर्तनों के अंश काफी मात्रा में बिखरे पड़े हैं। इस लेखक को यहाँ से परतदार ग्रेनाईट (जिससे स्लेट का निर्माण किया जाता है) और चीनी मिटटी से बने बर्तनों के कुछ टुकड़े भी प्राप्त हुए हैं।
इस ढूह के उत्तर और दक्षिण दिशा में क्रमशः रानी और राजा पोखर हैं। इसके बारे में किंवदंती है कि इनमें रानी और राजा अलग-अलग स्नान करते थे। फिर तो यह स्वाभाविक ही है कि यहाँ उनके ठहरने की भी व्यवस्था रही होगी। शायद, यह ढूह उसी छोटे राजनिवास के मलबे पर टिका है। भारतीय पुरातत्व संस्थान अगर यहाँ खुदाई करे तो सब साफ़ हो जायेगा।
विदित हो कि उपरोक्त लखदीपा मंदिर की चर्चा अंग्रेज़ सर्वेयर फ्रांसिस बुकनन (हेमिल्टन), जोसेफ़ बायर्ने व अन्य ने भी की है लेकिन किसी ने भी इसके नाम की चर्चा नहीं की है। अलबत्ता, इतिहासकार डॉ. अभय कान्त चौधरी और शास्त्रीय विद्वानों ने बालिसा नगर के इस विशिष्ट मंदिर लखदीपा (लक्षदीपा) की चर्चा की है, जहाँ दीपावली के अवसर पर लाखों दीपक जलाने की परंपरा थी। बालिसा के हरेक घर से एक ही दीप जलाने के नियम का अनुपालन ईमानदारी से किया जाता था। बालिसा का यह लखदीपा मंदिर भगवान मधुसूदन को समर्पित था।
कहते हैं कि बावन गलियां, चौवन बाज़ार वाला नगर बालिसा अपने चारों ओर खूबसूरत तालाबों से घिरा था जिनमें रंग-बिरंगे कमल के फूल लगे थे। सभी लक्षणों से परिपूर्ण प्राचीन काल का यह नगर हर दृष्टिकोण से समृद्ध था जिसे नष्ट कर दिया गया। अबतक प्रकाशित तथ्यों के अनुसार, बंगाल के नवाब दाउद खां कर्रानी के सेनापति कालापहाड़ ने इसे बर्बाद कर दिया लेकिन वस्तुस्थितियाँ इसे सिरे से खारिज़ करती हैं।
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